योद्धा (शौर्य) ने अपने मंगेतर मृणाल को अलविदा कहा और गाड़ी में बैठ गया। घुड़सवार ने घोड़े पर लाठी मार दी और फिर घोड़े आगे दौड़ने लगे। शौर्य ने मृणाल को अंदर से अलविदा कहा और मृणाल ने उसे संकरे रास्ते से अलविदा कह दिया। इस बीच, राजा चंद्रवर्धन शाही लाल सिंहासन से उठे और फिर द्वार की ओर चल पड़े। उसकी सफेद दाढ़ी महल की मंद रोशनी में चमक रही थी। वह अपने नीचे कालीन पर आलस से चला और दरवाजे पर पहुँच गया ...
"महाराज? महाराज! कृपया रुकिए, महाराज!" सिंहासन कक्ष से एक आवाज आई। महाराजा चंद्रवर्धन ने मुड़कर देखा। यह उनका सेनापति था जो उन्हें बुला रहा था। "क्या हुआ सेनापति? इतने घबराए क्यो हो?" महाराजा ने उससे पुचा। "महाराज! शौर्य ने मुझसे कहा था कि महाराज को कभी भी अकेला मत छोड़ना!" महाराज मस्कुराहेते हुए कहते हैं, "अरे! कोई चिंता का विषय नहीं है हम बस तहलने के लिए जा रहे हैं। अगर किसी की जरूरत पड़ी तो हम बुला लेंगे। हम अकेले नहीं जा रहे हैं!"
महाराजा चंद्रवर्धन आराम से गाना गुनगुनते हुए जाते हैं। तबी घरों की दिवारो पर चार मुखोटे पहने हुए होवे आदमी बंदरो की तरह कुद रहे थे। वो धीरे धीरे मकदी की तरह दिवारो पर चढ़ रहे थे। घरो के ऊपर के हिससे पर आने के बाद वो अपने शास्त्र निकल देते हैं और महाराज चंद्रवर्धन का इंतजार करते हैं। वो अपनी आंखें द्वार पर घाडे बथे हुए थे। तबी चंद्रवर्धन ने द्वार खोला और वो बहार आ गया। वो अभी भी गाना गुनगुना रहा था...
तबी उन हत्यारों ने अपने बानो से उसपर आक्रमण किया। "हमला! हमला! हमला!" वो चारो हटारे चिल्लाए। चंद्रवर्धन आचंबीत हो गया था। पर वो भाग नहीं उसे अपने सैनिको को पुकारा। टोनो सैनिक उसके पास दौड़े चले आए। तबी उन में से एक हत्यारे ने वो दो सैनिको पर तीर चलाय। वो दोनो मार गए। वो चारो हत्यारे मैदान में उतरे। पछवे हत्यारों ने अपना मुखखोटा खोला। चंद्रवर्धन डांग रे गया। वो जोरावर था। उसके मामा का लड़का। उसके मामा का पुत्र!