Chapter 1: "साल 2019 — सब कुछ ठीक था (या ऐसा लगता था)"

रायपुर की गलियों में सुबह की हल्की धूप उतरने लगी थी। सड़कें धीरे-धीरे जाग रही थीं, और आवाज़ों का एक अलग सा संगीत शहर में फैलने लगा था—सब्ज़ीवालों की आवाज़ें, स्कूली बसों के हॉर्न, और बाइक की तेज़ गूंज। इन सबके बीच, आरव सिंह की जिंदगी भी एक रफ्तार में चल रही थी—धीमी, मगर उलझनों से भरी।

आरव, 25 साल का एक सीधा-सादा लड़का था। वो 'क्लीनिट प्योरीफायर' नाम की एक छोटी सी कंपनी में सेल्समैन था। शहर के अलग-अलग इलाकों में जाकर लोगों को पानी के प्योरीफायर बेचता था। उसकी ज़िंदगी बहुत बड़ी नहीं थी, पर वो जो भी कमाता था, उससे अपना खर्चा चलाता, और बाकी अपनी मां को भेज देता—जो डाटरेंगा गांव में अकेली रहती थीं।

उसकी मां, सरस्वती देवी, एक साधारण गांव की महिला थीं, जो बेटे के कमाने और शहर में रहने पर गर्व करती थीं। आरव के पिता की मौत तब हो गई थी जब वो सिर्फ 10 साल का था—कैंसर से। तब से मां ही सबकुछ थीं उसके लिए।

लेकिन आरव की जिंदगी में एक और रिश्ता था—साक्षी

साक्षी श्रीवास्तव, उसकी गर्लफ्रेंड, शहर के एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ती थी। शुरू में वो बहुत प्यारी लगी थी आरव को। हँसी, बातों और चेहरे में ऐसा जादू था कि आरव का दिल कब उसके लिए धड़कने लगा, उसे खुद भी नहीं पता चला। लेकिन वक्त के साथ सब बदलने लगा।

"तुम मुझसे प्यार करते हो ना आरव?"

"हाँ साक्षी, बहुत करता हूँ..."

"तो फिर मुझे टाइम क्यों नहीं देते? कल पार्टी में अकेले गई थी मैं। तुम्हें मेरी फ़ीलिंग्स समझ ही नहीं आतीं..."

हर दिन ऐसी बातें होने लगी थीं। साक्षी अब सिर्फ नाराज़ ही रहती थी, और आरव उसके खर्चों का बोझ ढोता जा रहा था। वो कभी नए फोन की डिमांड करती, कभी शॉपिंग के लिए पैसे, कभी अपने दोस्तों के साथ कैफे में मिलने के लिए कार माँगती।

आरव उसे मना नहीं कर पाता था—शायद इसलिए क्योंकि वो अकेला था। शायद इसलिए क्योंकि उसकी ज़िंदगी में एक ‘अपना’ होना बहुत ज़रूरी था।

लेकिन उसी बीच कुछ छोटे-छोटे मोमेंट्स थे जो उसके चेहरे पर मुस्कान लाते थे—जैसे जब मां फोन करतीं और पूछतीं,

"खाना खा लिए बेटा? थक गए होगे, आराम कर लो। गांव आ जाओ कुछ दिन के लिए, मैं तुम्हारा मनपसंद बेसन का चीला बनाऊंगी।"

आरव हर बार बस हँस देता,

"अभी छुट्टी नहीं मिल रही मां, मिलते ही आऊँगा।"

मगर क्या उसे पता था कि ये 'मिलते ही' शायद कभी आए ही नहीं?

जनवरी से मार्च 2020 तक

ज़िंदगी धीरे-धीरे सरकती रही। आरव की कंपनी ने नया टारगेट दिया,

"हर महीने 20 प्योरीफायर बेचने हैं वरना सैलरी कट होगी।"

वो सुबह से शाम तक भटकता, धूप में जलता, धूल में पसीना बहाता — मगर मेहनत करता रहा।

साक्षी का रवैया अब और बदतर होता जा रहा था।

"देखो आरव, मैं और नहीं सह सकती। मेरे फ्रेंड्स कहते हैं तुम मुझसे प्यार नहीं करते। कोई टाइम नहीं, कोई रोमांस नहीं। तुम क्या सिर्फ पैसे देने के लिए हो?"

"नहीं साक्षी, ऐसा मत कहो..."

"जो भी हो, बस तुम बदल गए हो।"

आरव समझ नहीं पाता था कि गलती किसकी थी। क्या वो वाकई बदल गया था? या वो सिर्फ सच्चाई देखना नहीं चाहता था?

मई 2020 — तबाही की शुरुआत

COVID-19 की ख़बरें टीवी और अखबार में आने लगी थीं। आरव को लगा ये भी बाकी बिमारियों की तरह जल्द ही चली जाएगी। मगर मार्च के अंत में लॉकडाउन लगा, और अप्रैल में कंपनी ने सभी कर्मचारियों को "टेम्पररी छुट्टी" पर भेज दिया—बिना सैलरी।

आरव के पास जो थोड़ी बहुत सेविंग्स थी, वही अब उसका सहारा थी। उसे चिंता होने लगी मां की भी, जो गांव में अकेली थीं। लेकिन गांव में तब तक हालात थोड़े ठीक थे, इसलिए वो ज्यादा परेशान नहीं हुआ।

25 मई 2020 की सुबह

फोन की घंटी बजी।

"आरव बेटा..."

आवाज़ कांप रही थी—चाचा की।

"हां चाचा, क्या हुआ?"

"...बेटा... सरस्वती चली गई..."

सारी आवाज़ें जैसे एकदम बंद हो गईं। ज़मीन हिल गई। हवा सन्न हो गई।

आरव की मां — उसकी वो दुनिया — अब नहीं रही।

कोरोना ने उन्हें छीन लिया था।

इसके बाद कुछ बाकी नहीं था।

साक्षी ने ब्रेकअप कर लिया।

"तुम अब मेरी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं हो आरव। और एक बात बताऊं—मैं तुम्हें कब का छोड़ चुकी थी। तुमसे तो मैं बस टाइम पास कर रही थी। अब मैं करण के साथ हूं, और उसकी लाइफ तुम्हारी तरह बोरिंग नहीं है।"

आरव की दुनिया जल गई। सबकुछ राख हो गया।

मां नहीं रहीं। नौकरी नहीं रही। प्यार नहीं रहा।

वो बस एक कमरा था, चार दीवारें, और उसके बीच बैठा एक टूटा हुआ इंसान।

एक रात — वो मोड़ जहां किस्मत ने रास्ता बदला

आरव चुपचाप अपने रूम में लेटा था। पुराने एल्बम देख रहा था। एक फोटो—जिसमें वो मां के साथ था, गांव वाले घर में। मां मुस्कुरा रही थीं, और आरव 18 साल का था उस वक्त।

"काश मैं वक्त में वापस चला जाता... मां को बचा लेता... खुद को भी..."

उसकी आंखें भारी होने लगीं। नींद उसे खींच रही थी।

और फिर...

अंधेरा...

सुबह की रोशनी

आरव की आंख खुली।

कमरा अलग था।

छत पंखे वाली नहीं थी—पलस्तर में दरारें थीं, दीवारों पर पुराने कैलेंडर, सामने लकड़ी की मेज़ और एक मिरर।

वो उठा। घबराया।

"ये... ये तो गांव वाला कमरा है?"

तभी दरवाज़ा खुला।

मां आईं—चाय लेकर।

"उठ जा बेटा, ले चाय पी ले, कॉलेज जाना है आज।"

आरव मां को देखते ही फफक कर रो पड़ा।

मां घबरा गईं।

"क्या हुआ रे? सपना देखा क्या?"

"हां मां... बहुत बुरा सपना था..."

मगर ये सपना नहीं था —

ये दूसरा मौका था।

(जारी है...)