Chapter 2: "वो सुबह... जब मां फिर से दिखी"

आरव की आंखें धीरे-धीरे खुल रही थीं। कमरे में धूप का हल्का सा टुकड़ा खिड़की से फर्श पर गिरा हुआ था। उसकी पलकों पर एक मीठा सा वजन था — जैसे किसी ने थपकी देकर सुलाया हो। मगर आसपास का माहौल... कुछ अलग था। बहुत अलग।

वो उठकर बैठ गया। उसके बदन पर कोई टी-शर्ट नहीं थी, बल्कि एक पुरानी सी नीली रंग की शर्ट, जिसे वो कॉलेज के समय पहना करता था। उसने हैरानी से अपने चारों ओर देखा।

"ये कमरा... ये तो... गांव वाला कमरा है...?"

दीवार पर नमी थी, खिड़की से बाहर नीम का पेड़ झाँक रहा था। दीवार पर वही पुराना कैलेंडर टंगा था—जिस पर "जनवरी 2015" लिखा था।

आरव धीरे से उठा और कैलेंडर के पास गया। उंगलियाँ कांप रही थीं।

"जनवरी... 2015...? नहीं... ये कैसे हो सकता है...?"

उसकी नजर सामने लगे आईने पर गई। आईने में जो चेहरा दिखा, वो आरव को चौंका गया।

"ये... मैं...? ये तो... मैं हूं, लेकिन जब मैं 18 साल का था!"

उसके बाल थोड़े लंबे थे, चेहरा पतला, और आंखों में उस वक्त की मासूमियत जिंदा थी। वो अपनी ही परछाईं को देखता रहा—जैसे उसने कोई भूत देख लिया हो।

"क्या मैं... वाकई... समय में पीछे आ गया हूं...?"

तभी दरवाज़ा खुला।

"आरव... बेटा उठ गया? देखो, चाय ले आई हूं, ठंडी हो जाएगी तो अच्छा नहीं लगेगा।"

और जो दृश्य उसके सामने था, वो शब्दों से परे था।

दरवाज़े के पास खड़ी थीं — सरस्वती देवी।

सफेद सूती साड़ी पहने, माथे पर बिंदी, लंबे बाल पीछे से गुंथे हुए, हल्की मुस्कान लिए हुए — वो किसी देवी से कम नहीं लग रही थीं। उनकी आंखें बड़ी और चमकदार थीं, जैसे हर दर्द को धो देती हों।

"मां...?"

आरव की आवाज़ भर्रा गई। वो कुछ पल खामोश खड़ा रहा, और फिर अचानक — जैसे सारी दीवारें गिर गई हों — वो भागा और मां के गले लग गया।

"मां... मां... मां...!"

उसके आंसू रुक नहीं रहे थे। वो मां की गोद में चेहरा छुपा कर बिलख-बिलख कर रो रहा था। उसकी बांहें कांप रही थीं, और जिस्म बेजान लग रहा था।

सरस्वती देवी घबरा गईं।

"अरे रे रे... क्या हुआ बेटा...? क्या सपना देखा...? देख कितना रो रहा है तू..."

"मां... तुम जिंदा हो... तुम...!"

"तू पगला गया है क्या? मैं मर क्यों जाऊंगी...? अरे, मैं तो तुझे छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाली, जब तक तू कमा-धमा कर मुझे शहर ना ले जाए।"

आरव और भी ज़ोर से रो पड़ा।

"मां... मुझे माफ कर दो... मैंने तुम्हें खो दिया था मां... मैं आ नहीं पाया था... मैं वक्त पर... आ नहीं पाया था..."

"कौन सी फिल्म देख ली है तूने...? चल आ... बैठ, चाय पी।"

उसने हाथ पकड़ कर आरव को पलंग पर बिठाया और उसका सिर सहलाने लगी।

"देख, कुछ नहीं हुआ है... बुरा सपना देखा होगा... लेकिन अब तू उठ जा... आज कॉलेज का पहला दिन है न तेरा।"

आरव सिर झुका कर मां की गोद में बैठा रहा। उसकी उंगलियां मां की हथेली को कस कर पकड़ रही थीं — जैसे वो फिर से उन्हें खोना नहीं चाहता।

उस वक्त वो कोई सेल्समैन नहीं था। वो बस एक बेटा था — मां की गोद में पड़ा एक टूटा हुआ बेटा।

कुछ देर बाद, जब उसके आंसू थमे, तो मां ने उसका चेहरा पकड़ कर ऊपर किया।

"अब बताओ, ये क्या हुआ था तुझे? ऐसा सपना क्या देखा...?"

आरव थोड़ा मुस्कुराया, और बोला,

"एक ऐसा सपना... जिसमें आप नहीं थीं मां।"

सरस्वती मुस्कुरा कर उसका माथा चूमने लगीं।

"अब मैं हूं न... चल अब, तैयार हो जा। कॉलेज का पहला दिन है। मैं तेरे लिए पराठे बना रही हूं। गर्मागर्म घी वाला पराठा।"

आरव की आंखों में हल्की सी रोशनी लौटी। उसने एक लंबा सांस लिया।

"हां मां... कॉलेज जाना है..."

---

आरव अब समझ चुका था — ये कोई सपना नहीं था। वो समय में वापस आ गया था।

और इस बार उसे सब कुछ बदलना था।

मां को खोने से बचाना था।

खुद को, अपने फैसलों को, अपनी ज़िंदगी को फिर से सही दिशा देनी थी।

---

आरव तैयार हुआ। उसने वही पुराना बैग उठाया जिसमें उसकी किताबें थीं। आईने में एक बार खुद को देखा। अब वो इस चेहरे को पहचान चुका था।

नीचे जाकर नाश्ता किया। मां ने वही बेसन का चीला बनाया जो आरव को पसंद था। खाने के बाद उसने मां की चुपके से एक फोटो खींच ली अपने पुराने की-पैड वाले फोन से।

"तू क्या कर रहा है बे?"

"कुछ नहीं मां, बस ऐसे ही..."

दिल ही दिल में उसने कहा — "इस बार, मैं आपको खोने नहीं दूँगा..."

---

कॉलेज का पहला दिन — नई शुरुआत

कॉलेज का माहौल बदला नहीं था। वही भीड़, वही टीचर्स की आवाज़, वही कैंटीन की हलचल, और वही हल्के-फुल्के झगड़े।

लेकिन आरव के लिए सब कुछ नया था।

वो अब 18 का नहीं, बल्कि उस दिमाग वाला था जो 25 साल की जिंदगी जी चुका था।

उसे अब सबकुछ दोबारा जीना था — लेकिन इस बार समझदारी से।

क्लास में पहली बार उसकी नजर पड़ी एक लड़की पर — शांत, समझदार, सलीके से बैठी हुई।

उसका नाम था — प्रिया।

आरव ने उसकी तरफ एक बार देखा...

और मुस्कुरा कर खुद से कहा —

"अबकी बार, कहानी मैं खुद लिखूंगा..."

----

(जारी है...)