1.गर्मी

 अध्याय - प्रथम

 गर्मी

आज रात को गहरे काले रंग मे रंगा गया था। चांद कुछ समय तो अपनी जगह पर ही था लेकिन अब मानो जैसे किसी कोने मे छिप गया हो। उस साये को देखने के बाद से पत्तियों का टकराना भी हद्धय को मानो छोटा किए जा रहा हो । उसके पैर अब थक चुके थे वे विश्राम की चाह में थे पर वह रुक नही सकता था उसे इस भुल भुलैया से बाहर निकलना ही था।उसने अपने एक हाथ में मोटी लकड़ी पकड़ रखी थी जो उसे आने वाले खतरे के लिए काफी नजर नही आती थी उसकी सफेद दाढी और मुछे पसीने से पूरी तरह भीग चुकी थी। वह लगातार चले जा रहा था उसके दिमाग में युद्ध को रहा था एक पक्ष वहां से निकलने को कह रहा था तो दूसरा पक्ष अपने साथियों को ढूंढने का हौसला दे रहा था।

 वह गिरता गिरता बचा लेकिन भय से मोटी लकड़ी हाथ से छूट गई .......कुछ था वहां..... पर क्या ......वहां दूर..... उसने आंखों के नजर के चश्मे को हटाकर आंखें मली और उस ओर गौर से देखा .......कुछ नहीं था ..........नहीं कुछ तो था......... वह सामने था पर किसी साये की तरह था जिसके आकार की पहचान करने मे मुश्किल आ रही थी यकायक लगा कि वो जा चुका है या फिर कुछ था भी नहीं ।

 ऐसा लग रहा था जैसे पेट से कोई वस्तु बाहर आना चाहती हो बाहर आते आते उसने जैसे हद्धय को चीर दिया हो किसी रेंगते साँप की तरह वह जैसे जैसे पेट से गर्दन की ओर आ रहा था वैसे वैसे दर्द स्वयं दर्द से कराह रहा था उसने उल्टी कर दी शायद जो अंदर था वह बाहर निकल गया होगा लेकिन यहां कोई साप नहीं था कुछ और ही था कुछ बड़ा सा आश्चर्य यह उसके शरीर में कैसे आया। वह जीव समझ से परे था जो जमीन पर भयावह तरीके से रेंग रहा था

 यह भ्रम था कुछ नहीं था ना जमीन पर ना उसके पेट मे ....... लेकिन ना जाने क्यों वह चीख पड़ा उस चीख में बड़ी ताकत थी, ऊर्जा से भरी हुई चीख.....उसे तो लग रहा था कि यह चीख अनंत तक पहुंच चुकी होगी परंतु यह चीख प्राण भी शोख रही थी वह निकलते महसूस हो रही थी। आंखों पर दबाव था गहरा दबाव, आंखे धीरे-धीरे अंधेरे की खातिर बंद हो रही थी

 पांच दिन बाद

वह काफी परेशान था उसके चेहरे पर भारी चिंता थी जो इस परिस्थिति में लाजमी थी उसे अपनी नौकरी छोड़कर वापस आना पड़ा था , अपने पिता के पास जयशंकर के पास ।

 कुछ दिनों पहले उसे यकीन था कि वह लौटकर अपने पिता की शक्ल नहीं देखेगा पर उसके हद्धय के तल पर अपने पिता के लिए हल्का सा प्यार था जो उसे कइ सालों बाद देहरादून खींच लाया था। जय ने कभी भी अपने पिता को पिता की उपाधि नही दी उसकी मां की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण वह अपने पिता को ही मानता था जिस कारण वह बैग्लोर चल दिया अपने पिता को छोड़कर .....अकेला......जहां उसके दोस्तो ने उसे जाँब दिला दी थी।

' हा जी क्या लगते हैं आप मरिज के ' जय ने आंखों को ऊपर किया तो वहां डॉक्टर को पाया। जय जवाब में झिझका

' पापा हैं मेरे' जय ने अपने घमंड को एक तरफ रखकर पूछा 'क्या हुआ है उन्हें'

' दोखिये .......मेरे हिसाब से........ वे अजीब से भ्रम पैदा कर रहे हैं.....' डॉक्टर ने समझाते हुए कहा , ' अगर ऐसी प्रकार चलता रहा तो उन्हे मेंटल हॉस्पिटल शिफ्ट करना पड़ेगा'

' मेन्टल हॉस्पिटल 'जय ने हैरानी से कहा, उसकी अपने पिता के प्रति नफरत थी पर इतनी नहीं कि वह उन्हे इस हालात में देखे

'आप काउन्टर पर बिल दे दिजीयेगा ' डॉक्टर ने कहा और मुड़कर चलने लगे

'जी डॉक्टर'

' चिंता मत कर....... सब ठीक हो जाएगा' पास खड़े जय के हमउम्र अशोक ने सांत्वना दी , अशोक जो जय के साथ इसी शहर में पढ़ा था उसी ने जय को इसकी जानकारी दी थी

 

 *

पल भर में सारी यादें ताजा हो गई जब 7 साल बाद जय ने अपने घर को देखा जिसमें अच्छी यादें कम और बुरी यादे ज्यादा थी जब अशोक ने बैठने के लिए कुर्सी ढूढनी चाही तो जय आँगन में ही बैठ गया और घर को निहारता रहा अशोक भी नीचे उसके बगल में बैठ गया

'क्या हाल भाई .....सात साल बाद ' अशोक ने कहा

'अब तक तो ठीक ही था .......अब आगे का पता नही ' जय मुस्कुरा दिया जिसके पीछे अशोक भी हँस दिया ' बहुत सालों बाद यहां आकर सारे घाव नये हो गए हैं' वह घर की दीवारों को ही निहारता रहा

तभी मुख्य दरवाजे से एक युवती ने प्रवेश किया जिसके हाथ से जय ने पानी का गिलास उठा लिया और अशोक की तरफ सवालिया निगाहक डाल दी।

' भाभी है तेरी 'अशोक ने मुस्कुरा कर कहा,

'क्या बात है तू तो सेटल हो गया' जय ने पानी पीकर कहा,उस औरत के चेहरे पर हल्की न हटने जैसी मुस्कान थी

'तो पापा को अचानक क्या हुआ ' जय ने कहा जिसे सुनकर अशोक गंभीर हो गया

' अभी खाना खा ले बड़ी दूर से आया है कल बात करते हैं आराम से ' अशोक ने बात टाल दी

' मैं रुकने नहीं आया हु अशोक मैं परसों तक वापस जा रहा हूं ' जय ने कहा

' मुझे लगता है कोई भूत प्रेत का मामला है ' अशोक की पत्नी ने नाटकीय ढंग से कहा

' सुनीता ' अशोक ने ऊंची आवाज से सुविधा को चुप करा दिया, 'इसकी बात पर ध्यान मत दे जय ......तुझे अंकल के 6 दोस्त याद ही होगे '

'हा उनके कॉलेज फ्रेंड्स पर वे सब तो देहरादून से बाहर रहते है , है ना '

' सात दिन पहले सब यही मिले थे ....फिर पार्टी हुई ....फिर मिलकर एक टूर का प्लेन बना दिया ....... वहां क्या हुआ यह तो पता नहीं पर जब लौटे तब तो तुम्हारे पिता ठीक ही थे पर वे रात रात भर चिल्लाते, कहते कि मुझे भेडिया खा जायेगा... शायद वे सांप का भी कहते थे कभी-कभी खुद को मारने की कोशिश कर देते ' अशोक ने बोलाना बंद किया और गहरी सांस ली , ' उनकी चीखे सच्ची लगती थी और भयानक भी, पूरी सोसाइटी परेशान थी सो कल ही मैं उन्हें डॉक्टर के पास ले गया था '

जय ने कोई जवाब नही दिया हालाकि उसे पता था कि अशोक और सुनिता उसकी प्रतिक्रिया के इंतजार मे थे

काफी समय बाद उसने अपने पिता के बारे में इतना कुछ सोचा था अधिक आश्चर्य यह था कि उसने अपने पिता की परवाह की थी हालांकि उसे पता था कि उसके पिता मानसिक तौर पर काफी मजबूत है। एक अच्छे वैज्ञानिक और गणितज्ञ थे यह मानना मुश्किल था कि वे पागल हो रहे हैं पर जैसा सुना था उससे तो यही लगता था या फिर अंततः उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया क्या वे अब जाकर सदमे में आए थे उन्हें अंततः पश्चाताप हुआ था उनका इकलौता बेटा उन्हे छोड़ कर दूर जा चुका था पर उन्होंने कभी फोन तो नहीं किया, ना ढूंढने की कोशिश, हो न हो कुछ और ही था क्या उनकी यात्रा ऐसी हुई कि वे पागल हो गए

'उनके दोस्तो को भी क्या कुछ हो गया है ' अचानक जय बोल पड़ा , वे तीनो खाने की टेबल पर बैठे थे ,उसका सवाल सुनकर अशोक खासने लगा और पानी पीने लगा

'वे......वे वापस चले गये ' अशोक ने सपाट चेहरे से कहा 

'क्या उन लोगो ने कुछ नही कहा '

'नही ' अशोक ने जल्दी से कहा

'कुछ भी नही ' सुनिता ने आखिरी निवाला लेते हुए कहा

 *

'इसमे मेरी कोई गलती नही है जय......मुझे इसकी जानकारी नही थी ' एक परछाई ने कहा

'आपकी गलती ही है .........अपनी इस बेतुकी किताबो के अलावा आपको किसी से प्यार नही है ' जय ने किताबो से भरी डेस्क गुस्से से उल्ट कर दी उसके हर शब्द उसकी मां की मौत के दर्द को बया कर रहे थे जय लगभग 18 साल का नवयुवक लग रहा था

उसके पिता की परछाई ने उसे थप्पड़ लगा दी

' खबरदार जय अगर किताबों को हाथ लगाया' , जयशंकर झुककर किताबे समेटने लगा

जय ने घृणा के भाव से जयशंकर को देखा और अपने रूम की तरफ तेजी से चल दिया

 *

और जय जाग गया। वह अपने सपने को भूलने के प्रयास में था उसके पुराने जख्म उभरने लगे थे , 7 साल पुरानी यादें अभी तक उसकी जहन में थी। जब वह अपने रूम से नहा कर खाने की टेबल पर पहुंचा तो अशोक ने कहा

' कब की है ट्रेन'

'आज की है ' जय ने कहा , ' पापा को देख कर चला जाऊंगा..... जो भी पैसे होंगे मैं भिजवा दूंगा बाद में'

अशोक का चेहरा बहुत कुछ कह रहा था पर उसकी जुबान खामोश बनी रही

जय अपने पिता को पहली बार देख कर दुखी हो चुका था वह वापस सामना करने को तैयार नहीं था जय को डर था कि यह उसकी आखिरी मुलाकात ना हो , वह चलता रहा उसे रूम नंबर पता था वह उस हॉस्पिटल के गलियारे में चलता रहा। जब अशोक ने रूम नंबर 118 का दरवाजा खोला तो जयशंकर बेड पर नहीं था बेड खाली था

 जब तक अशोक और जय कुछ प्रतिक्रिया दे पाते हैं तब तक एक औरत की चीख उनके कानों में आ पड़ी सामान्य बात को समझने में समय लगा कि औरत की आवाज उसी रूम में आई थी कुछ था उस कमरे के कोने में जो उन्हे अब तक नहीं दिखा था जिसे देखकर हर कोई डर सकता था एक व्यक्ति ने उस नर्स के कंधे का मांस खा लिया था वह पैर के बल बैठकर मांस चबा रहा था और हांफ रहा था । नर्स बेहोश हो चुकी थी उसके कंधे से हड्डी नजर आने लगी थी। अशोक ने उल्टी कर दी पर जय का ध्यान उस व्यक्ति पर था जो पहचाना सा लग रहा था .. ....... उसके पिता जयशंकर जिनका पूरा ध्यान अपने खाने पर था जिसे वह चबाये जा रहे थे

उनमें कुछ खास अंतर नहीं आया था केवल वे अब हट्टे कट्टे लग रहे थे पहले की तरह कमजोर नहीं। उनका ध्यान अपने भोजन पर था जिसे वे चबाए जा रहे थे उनके कपड़े और मुंह उस नर्स के खून से रंगे थे। खून अब भी फर्श पर टपक रहा था जैसे ही जयशंकर की बदली नजरें जय पर पड़ी जय अंदर तक कांप गया जयशंकर उठा और लड़खड़ाता हुआ जय के पास आ गया। अशोक ने जल्दी से खुद को और जय को एक कदम पीछे कर लिया

' मैंने' जयशंकर ने खून से भरे होठों से कहा, 'तुम्हारी मां को नहीं मारा' उनकी आवाज अब बदल चुकी थी।

ये कहते हुए जयशंकर ने जय के कंधे पर हाथ रख दिया तब जय को भयंकर गर्मी का एहसास हुआ वह झट से पीछे हट गया जयशंकर अजीब ढंग से सिर हिला रहा था उसकी आंखों में चमक थी जो भयानक लग रही थी

 *

क्या वहां से चले आना ठीक था क्या अपने पिता को यूं छोड़ आना सही था , लेकिन जय और कर भी क्या सकता था इसके सिवाय , उसके बस में कुछ था भी तो नहीं। वह दृश्य जब उसके पिता को पागलखाने ले जाया जा रहा था भयानक भी था और एक पुत्र के लिये दयनीय भी , जो भी हो वह यह सब कुछ पीछे छोड़ आया था बहुत पीछे। उसने अपने विचारों पर लगाम कस दी और ट्रेन से बेंगलुरु स्टेशन पर उतर गया

 उस स्टेशन की भीड़ में वह लगातार चलता रहा। भीड़ जितना शोरगुल कर रही थी उससे कहीं ज्यादा शोर जय के अंदर चल रहा था यही कारण था कि वह चलते वक्त बहुत से लोगों से टकरा गया था । उसने उन्हें सुना भी नहीं जो पीछे मुड़कर उसे गालियां दे रहे थे

'अंधा है क्या '

 वह होश में तब आया जब हर चौराहे पर था सुबह की लगभग 5:00 बज चुकी थी जय चलने लगा जब उसे सामने एक काले रंग की कार दिखी जब जय ने कार का दरवाजा खोला तो एक प्यारी सी मुस्कान के साथ उसकी गर्लफ्रेंड उसे दिख गई जिसे देखकर जय खुश दिखने लगा था वह जल्दी से अंदर बैठ गया संजना ने उसकी तरफ झुक कर उसे चूम लिया

' कैसे हैं पापा' संजना ने कार को सड़क पर बढ़ाते हुए कहा काफी देर तक जवाब ना आने पर उसने आवाज तेज की, 'जय ' क्योंकि जय अपने में ही खोया हुआ था और जय की ओर सवालिया निगाहे कर दी

' ठीक नहीं है ' जय ने कहा

' तो रुक जाते मैं संभाल लेती यहां ' उसने कहा

'वो बाँस आज आने वाले है ना .....तो' जय ने सफाई दी

'पापा के साथ रहना ज्यादा जरूरी है जय' संजना ने समझाते हुए कहा

जय जवाब मे केवल मुस्कुरा दिया और खिड़की के बाहर की हवा को महसूस करता रहा

 *

जय अपनी रोजमर्रा जिंदगी में लौट आया था वही ऑफिस वही फ्लैट जो बॉस ने खुश होकर उसे दिया था सच कहा जाए तो जय की नजर में जयशंकर से बढ़कर उसके बॉस मानव रायचंद थे मानव रायचंद इकलौते ऐसे व्यक्ति जिसने जय के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचाना था और उसे नौकरी दी थी जय के लिए वे एक आदर्श थे

वह जल्दी से फ्रेश हो कर नहा धोकर ऑफिस जाने के लिए तैयार हुआ ही था कि उसे बालकनी से अपना कलीग नंदलाल की कार आती हुई नजर आ गई , नंदलाल उसका सबसे अच्छा दोस्त वह दोस्त जो शायद एकमात्र कारण था जय की मुस्कुराहट का । उसने झट से गर्म टोस्ट दांतों के बीच रखा और खाते हुए लैपटॉप कंधे पर लटकाया और दरवाजा लॉक कर सीढ़ियां उतरने लगा

' कैसा है भाई' नंदलाल हंसकर बोला

'अच्छा हूं ' कहता हुआ जय कार में बैठ गया

'और तेरे पापा' नंदलाल ने कहा,

' अब ठीक है ' जय ने झूठ कह दिया और मुस्कुरा दिया

ऑफिस तक का रास्ता हंसी मजाक में इधर-उधर की बातों में गुजर गया

 *

सब कुछ अच्छा जा रहा था सबकुछ , जय अब काम में इतना व्यस्त था कि उसे जयशंकर को याद करने का समय ही नहीं मिला लंच में हमेशा की तरह मिसेज डोगले से बातें की, सैंडविच लिया बॉस के कुत्ते जीनू को बिस्किट खिलाया और नंदलाल से गप्पे मारे , काम भी बेहतर हो रहा था बॉस भी जय से काफी खुश थे । काफी समय बाद आज शाम को वह संजना के साथ डेट पर भी जाने वाला था

' मै पार्किग मे वेट कर रहा हूं जय' नंदलाल ने यह कहते हुए ऑफिस से बाहर की ओर कदम बढ़ा दिये

' हां बस आया' जय ने कीबोर्ड पर एंटर दबा कर कहा, उसने आंखें मली और उठा तो बाँस सामने थे

'तुम काफी मेहनती हो जय ' उन्होंने कहा और अपने होठो के कोने पर से हाथों से साफ किया, 'इस बार तुम्हारा प्रमोशन पक्का है'

'थैक्यू सर' जय ने खुश हाते हुए कहा

'कीप इट अप' उन्होने जय का कंधा थपथपाया, 'गुड नाइट'

उनका हाथ काफी गर्म था जय ने अपने कंधे पर गर्मी महसूस की उसने आंखों के कोने से लाल छींटे उनकी कॉलर पर देखे, उसका दिमाग जैसे हिल गया हो उसके हाथ-पैर फूल कर कांप रहे थे

'गुड नाइट सर ' वह तेज कदमों से सीढीयो की तरफ भागा, चलते चलते उसने कांपते हुए हाथों से फोन जेब से निकाला जो उसके हाथों से छूटते छूटते बचा। उसने जल्दी से नम्बर डायल किये । घण्टी बजने लगी ।

'हैलो ' वह काँपती आवाज मे बुदबुदाया और वह ग्राउंड फ्लोर पर पहुंच गया

उसकी नजर वही पड़ी जहां पड़नी नही चाहिए थी, बॉस का कुत्ता जीनू मृत अवस्था में एक कोने में पड़ा हुआ था जैसे किसी ने उसे दातों से नोचा हो फर्श पर चारों तरफ उस कुत्ते का खून फैला हुआ था .... मिसेज डोगले दहशत में खड़ी थी उनका हाथ उनके मुंह पर था

'हैलो' सामने से अशोक की जानी पहचानी आवाज आई

'अशोक ' उसने अपने कदम पार्किंग की ओर बढ़ा दिये

'हा बोल ......पहुंच गया '

' तू एक बात बता मुझे' वह चलते हुए नंदलाल की कार के पास पहुंच गया था

'क्या बोल'

' पापा के दोस्तों में से किसी का नाम मानव रायचंद था क्या ' उसने सांस रोककर जवाब का इंतजार किया

'हम्म.....' सोचती हुई आवाज में अशोक ने कहा, 'हां पर क्यों .....क्या हुआ '

जय इतना ही सुन पाया उसे ना नंदलाल की आवाज सुनाई दी , ना अशोक की ,वह जैसे थम गया था

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