Chapter 19 pariksha ya punishment

अभिमन्यु अब अपने दादा जी के कमरे में था, जहां की दीवारों पर टंगी पुरानी पेंटिंग्स और फर्नीचर से सजा हुआ कमरा एक पुरानी विरासत की कहानी बयां कर रहा था। हर कोने में रखा सामान, चाहे वो पुरानी तलवारें हों, या फिर पीतल के बड़े-बड़े बर्तन, सब किसी ऐतिहासिक घटना की गवाही दे रहे थे। कमरे में धीमी रोशनी और हल्की सी गंध, जो शायद सदियों पुरानी थी, ने वहां का माहौल और भी गूढ़ बना दिया था।

अभिमन्यु के साथ उसके दादा जी, नरसिंह प्रताप सिंह, गंभीर मुद्रा में खड़े थे। दादा जी का चेहरा दृढ़ था, जैसे उन्होंने कोई कठिन निर्णय लिया हो जिसे बताना आवश्यक हो। उन्होंने अभिमन्यु की ओर देखते हुए धीमी आवाज में कहा, "अब से कुछ सालों तक तुम्हें घर से दूर रहना होगा, और किसी से भी ये बात नहीं कहनी कि तुम किस परिवार से हो।"

अभिमन्यु चौंक गया। उसने एक पल के लिए सोचा कि क्या उसने कुछ गलती की है, जिसके कारण उसे ये सजा दी जा रही है। उसकी आवाज में हल्की घबराहट थी जब उसने पूछा, "क्या मैंने कुछ गलत किया है, जो मुझे ये सजा मिल रही है?"

नरसिंह प्रताप सिंह ने अपने सिर को ना में हिलाते हुए कहा, "नहीं, ये सजा नहीं है। बल्कि ये एक परीक्षा है। सिर्फ तुम ही नहीं, बल्कि जो भी वारिस बनने की दौड़ में शामिल होता है, उसे इस परीक्षा से गुजरना पड़ता है। ये हमारे पूर्वजों से चला आ रहा नियम है। इसी तरह से हम अपने होने वाले राजा का चयन करते हैं।"

अभिमन्यु अभी भी हैरान था। उसने कुछ कहने के लिए मुंह खोला, लेकिन उसके दादा जी ने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा, "मुझे पता है कि तुम्हें पैसों की अहमियत समझ है, क्योंकि परिवार के नियमों के कारण हम अपने बच्चों को ज्यादा पैसे नहीं देते। लेकिन इतना काफी नहीं है। ये केवल पहला गुण है जो एक राजा में होना चाहिए। इसके अलावा भी कई बातें हैं जो परिवार से दूर रहकर ही समझ आती हैं।"

अभिमन्यु ने गहरी सांस लेते हुए पूछा, "ये परीक्षा कब तक चलेगी?"

उसके दादा जी हल्के से मुस्कुराते हुए बोले, "ज्यादा समय तक नहीं।"

अभिमन्यु को यह सब अजीब लगा, क्योंकि उसे सही से कुछ भी नहीं बताया जा रहा था। उसका दिमाग तेजी से चल रहा था, लेकिन उसे कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल रहा था।

उसने आखिरकार पूछा, "तो मुझे कब से जाना होगा?"

उसके दादा जी ने गंभीर स्वर में कहा, "बस, अभी से ही।"

अभिमन्यु हैरान होकर बोला, "अरे दादा जी, सुबह तो हो जाने दीजिए।"

नरसिंह प्रताप सिंह ने अपनी कठोर आवाज में कहा, "परिवार के नियम हैं, मैं कुछ नहीं कर सकता।"

अभिमन्यु ने असमंजस में पूछा, "अच्छा, तो क्या मैं माँ और प्राची से मिल सकता हूँ?"

दादा जी ने कुछ पल के लिए सोचा और फिर बोले, "हाँ, मिल सकते हो, लेकिन उनके बारे में किसी से कह नहीं सकते, और उनसे कोई सहायता भी नहीं ले सकते।"

अभिमन्यु को इस परीक्षा से ज्यादा परेशानी नहीं थी क्योंकि वह पहले से ही अपने दम पर पैसे कमा लेता था और अक्सर घर से बाहर ही रहता था। मगर दादा जी के अगले शब्दों ने उसकी सहजता को तोड़ दिया।

नरसिंह प्रताप सिंह ने उसकी ओर देखते हुए कहा, "यही सोच रहे हो ना कि तुम तो वैसे भी ज्यादातर समय घर से बाहर रहते हो और पैसे भी कमा लेते हो, तो ये टेस्ट कोई बड़ी बात नहीं है। तो सुनो, यहां पर जो दोस्त तुमने बनाए हैं, वो भी तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से ही बने हैं। तुम उनसे भी मदद नहीं ले सकते, चाहे वो सागर हो, दिलजीत हो, या फिर वैभव। इन सबमें से तुम किसी की सहायता नहीं ले सकते।"

अभिमन्यु ने मुस्कुराते हुए हलके फुर्सत में कहा, "क्या आपने कोई चीनी उपन्यास पढ़ लिया है, या हमारे पूर्वजों ने?"

नरसिंह प्रताप सिंह उसकी बात सुनकर हंसे और बोले, "मुझे पता है ये सब तुम्हें अजीब लग रहा है, लेकिन नियम तो नियम होते हैं।"

दादा जी ने फिर उसे और भी कई नियम बताए, जिन्हें सुनकर अभिमन्यु का सिर घूम गया। उसने आखिर में मजाकिया अंदाज में कहा, "अच्छा, ये चश्मे की क्या कहानी है?"

दादा जी ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा, "ये तो बस एक साधारण चश्मा है।"

अभिमन्यु को समझ नहीं आया कि दादा जी को सच्चाई पता है या वो सिर्फ नाटक कर रहे हैं। वो और कुछ पूछने वाला ही था कि तभी वे दोनों कमरे से बाहर निकले और हॉल की ओर चले, जहां टेबल पर एक बड़ा सा केक रखा हुआ था। अभिमन्यु ने अपने जन्मदिन का केक काटा और सबके साथ जश्न मनाया।

उसके बाद अभिमन्यु ने सबको अपने जाने के फैसले और परिवार के नियम के बारे में बताया, जो कि उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा था। उसके भाई-बहन इस नियम को सुनकर थोड़े हैरान हुए, लेकिन बाकी बड़े-बुजुर्ग उतने हैरान नहीं थे, जैसे कि उन्हें पहले से इसका पता था।

अभिमन्यु की मां, किरण, ने उसे समझाते हुए कहा, "अगर कोई भी परेशानी हो तो तुम वापस आ सकते हो। समझ गए?" उसकी आँखों में हल्के आंसू थे, जिन्हें वो छुपाने की पूरी कोशिश कर रही थी। अपने पति की मृत्यु के बाद उसने खुद को बहुत मजबूत बना लिया था, लेकिन एक मां का दिल इतना कठोर नहीं हो सकता कि अपने बेटे को खुद से दूर कर सके।

अभिमन्यु ने अपनी मां को गले लगा लिया, जबकि उसके कज़िन्स उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे। विक्रांत ने कहा, "भाई, आप नहीं जा सकते। मुझे मुखिया नहीं बनना। मैं अपनी दावेदारी आपको सौंपता हूँ।" बाकी के बच्चे भी विक्रांत की देखादेखी वही कहने लगे कि वो लोग अभिमन्यु को मुखिया बनाने के लिए तैयार हैं।

तभी नरसिंह प्रताप सिंह ने सबको शांत करते हुए कहा, "ऐसा नहीं हो सकता। चाहे वारिस बनने की दौड़ में प्रतिद्वंद्वी हो या न हो, लेकिन अगर किसी को भी वारिस बनना है, तो उसे इस परीक्षा से गुजरना ही होगा। यही परिवार का नियम है।"

अभिमन्यु के दादा जी ने कहा, "अब अपने सभी गिफ्ट्स, बैंक के कार्ड, और बाकी का सामान यहीं छोड़ दो। तुम सिर्फ उन कपड़ों के साथ बाहर जा सकते हो जो तुमने पहन रखे हैं।"

अभिमन्यु ने अपनी घड़ी और बाकी की एसेसरीज उतार दीं। अब उसने बस एक हूडी, जींस, टी-शर्ट, और एक सिल्वर का ओम का लॉकेट पहना हुआ था। बिना जूते पहने, वह घर से बाहर निकल गया। उसके साथ ही करिश्मा भी बाहर निकल आई।

जैसे ही वे दोनों गंगा हिल के गेट के बाहर निकले, करिश्मा ने चुटकी लेते हुए कहा, "कम से कम जूते तो पहन लेने देते। उन्होंने तो तुम्हें नंगे पांव ही बाहर निकाल दिया, बुड्ढा सठिया गया है।"

अभिमन्यु ने हंसते हुए कहा, "चलो, तुम्हें घर छोड़ दूं।"

करिश्मा ने मुस्कुराते हुए कहा, "हां, मेरे घर चलो। अब से तुम मेरे साथ रहोगे।"

अभिमन्यु ने हंसी में कहा, "दादा जी ने कहा था कि मैं तुम्हारी मदद नहीं ले सकता।"

करिश्मा ने गंभीर होते हुए कहा, "लेकिन इतनी रात गए तुम कहां जाओगे?"

अभिमन्यु ने कंधे उचकाते हुए हल्की मुस्कान दी।

करिश्मा ने तिरछी नज़र से देखते हुए कहा, "ठीक है, फिर मैं तुम्हारे साथ चल रही हूँ।"

अभिमन्यु ने कहा, "पागल मत बनो। ये परीक्षा मुझे अकेले ही देनी है।"

करिश्मा ने कहा, "तुम मुझे अपने साथ आने से नहीं रोक सकते।"

अभिमन्यु ने शांति से जवाब दिया, "बिलकुल रोक सकता हूँ।"

इतना कहते ही उसने करिश्मा के गले के पीछे हल्का सा प्रहार किया और वह बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ी।