अंधेरी रात में सड़क पर बिल्कुल सन्नाटा पसरा हुआ था। आसमान पर तारे चमक रहे थे, लेकिन चांद नदारद था। सड़क के किनारे लगी स्ट्रीट लाइट्स की हल्की पीली रोशनी से रास्ता थोड़ा बहुत दिखाई दे रहा था, लेकिन ज्यादातर जगहें अंधेरे में डूबी हुई थीं। ठंडी हवा की सरसराहट चारों ओर फैल चुकी थी, जो रात के सन्नाटे को और गहरा रही थी। इसी बीच अभिमन्यु अपने कदमों की हल्की आवाज़ के साथ सड़क पर आगे बढ़ता जा रहा था, उसके कदमों में एक धीमी, मगर मजबूत लय थी। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, जैसे वह किसी गहरी सोच में डूबा हो।
तभी दूर से बाइक की हेडलाइट्स जलती हुई दिखाई दीं। अंधेरे में वो रोशनी किसी खतरे की दस्तक जैसी लग रही थी। बाइक की तेज आवाज़ और उसके साथ आती हुई तेज़ हवाओं ने अभिमन्यु का ध्यान अपनी ओर खींचा। बाइक पर छह आदमी सवार थे, उनके हाव-भाव और हुलिया देखकर साफ समझ में आ रहा था कि ये लोग कुछ गलत इरादे लेकर आ रहे थे। बाइक तेजी से अभिमन्यु की ओर बढ़ी और कुछ ही पल में वो लोग उसके पास आकर रुक गए। बाइक की हेडलाइट्स अब सीधी अभिमन्यु पर पड़ रही थीं, उसकी आँखें थोड़ी चौंधिया गईं।
वे सभी लोग अपनी बाइक से उतरते ही अभिमन्यु को चारों तरफ से घेरने लगे। उनके चेहरे पर बुरी नीयत साफ झलक रही थी। जैसे ही उन लोगों ने अपनी जेबों से चाकू निकाले, और एक आदमी ने देसी कट्टा दिखाया, रात का सन्नाटा और भी भारी हो गया। चारों ओर हवा में खतरनाक खामोशी थी।
इन आदमियों का चेहरा बताता था कि ये कोई मामूली लुटेरे नहीं थे। ये एक कुख्यात 'बाइकर गैंग' के सदस्य थे, जो रात के अंधेरे में लूटपाट करने के लिए मशहूर थे। शहर की पुलिस और आम जनता दोनों ही इनसे बहुत परेशान थे। वे आए दिन किसी न किसी को लूटते थे, और रात को अकेले सफर करने वाले लोगों के लिए तो यह गैंग एक डरावना सपना बन चुका था।
उनमें से एक आदमी ने अभिमन्यु की ओर चाकू लहराते हुए कहा, "अगर अपनी खैरियत चाहते हो, तो चुपचाप अपने सारे पैसे और कीमती सामान हमें सौंप दो।"
अभिमन्यु ने उनकी धमकी को सुना, और बिना कोई चिंता दिखाए, उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई। वो अपनी जगह खड़ा रहा, उसके हाव-भाव से लगा ही नहीं कि उसे कोई डर महसूस हो रहा था।
पाँच मिनट बाद
वही छह आदमी अब घुटनों के बल बैठे हुए थे, उनके दोनों हाथ उनके सिर के पीछे थे, मानो किसी सजा की मुद्रा में हों। उनके चेहरे और शरीर पर चोटों के निशान साफ दिख रहे थे। एक आदमी के सिर से खून बह रहा था, लेकिन उनमें से कोई भी एक शब्द नहीं बोल रहा था। वे सब अभिमन्यु की ओर चुपचाप देख रहे थे, जो अब उनके सामने एक बाइक पर किसी राजा की तरह बैठा हुआ था। उसकी आँखों में आत्मविश्वास और विजयी मुस्कान थी। अभिमन्यु ने अपने दोनों हाथों में पैसे के कुछ नोट पकड़ रखे थे और वो उन्हें गिन रहा था। "तेरह, चौदह और पंद्रह," उसने इतने नोट गिनते हुए कहा और फिर नोटों को तह कर अपनी जेब में रखते हुए हंसी में कहा, "सोचा नहीं था कि तुम सबके पास से मुझे इतने पैसे मिलेंगे। पूरे पंद्रह हज़ार! क्या बात है।"
उनमें से एक आदमी ने डरते हुए कहा, "हमारे पास इतने ही थे... अब प्लीज, हमें जाने दो।"
अभिमन्यु ने मुस्कुराते हुए कहा, "ठीक है, जा सकते हो। लेकिन तुममें से एक को मुझे रेलवे स्टेशन तक छोड़ना होगा।" उसने उसी आदमी की ओर इशारा किया जिसने उससे गुहार लगाई थी, "चलो, तुम ही छोड़ दो, बाकी सब जा सकते हैं।"
वह आदमी डरते हुए मान गया। वह अपनी बाइक पर बैठ गया और अभिमन्यु उसके पीछे बैठ गया। बाइक के इंजन की आवाज़ फिर से गूंज उठी, और वे स्टेशन की ओर चल पड़े। बाकी के लोग राहत की सांस लेकर वहां से भाग निकले।
सैली, जो अब भी अभिमन्यु के दिमाग में उसकी हरकतों पर नज़र रखे हुए थी, चिढ़ते हुए बोली, "इसे पैसे कमाना नहीं, डकैती कहते हैं।"
अभिमन्यु ने उसे मन ही मन जवाब दिया, "अब ये तो नज़रिए का फर्क है। तुम्हारी नज़र में डकैती और मेरी नज़र में कमाई।"
कुछ देर बाद, बाइक स्टेशन के सामने आकर रुक गई। जैसे ही अभिमन्यु उतरा, वो आदमी अपनी बाइक को तेज़ी से दौड़ाते हुए वहां से भाग गया। अभिमन्यु उसे जाते हुए देख हंसा और बुदबुदाया, "ये सबक इन्हें काफी समय तक याद रहेगा, कि कभी-कभी उन्हें भी कोई लूट सकता है।"
इतना कहकर अभिमन्यु टिकट काउंटर की तरफ बढ़ गया। स्टेशन पर काफी भीड़ थी, शायद कोई ट्रेन जल्दी ही आने वाली थी। चारों तरफ लोग अपने सामान के साथ लाइन में लगे हुए थे। काउंटर के पास हलचल मची हुई थी, और स्टेशन की चहल-पहल से साफ था कि यह जगह अब रात के सन्नाटे से बाहर निकल रही है। स्टेशन की लाइट्स में हर चीज़ चमक रही थी, और वहां का माहौल उस वीरान सड़क से बिल्कुल उलट था जहाँ से अभिमन्यु आया था।
अभिमन्यु ने टिकट काउंटर पर जाकर दिल्ली जाने की एक जनरल टिकट कटवाई और फिर प्लेटफार्म की ओर बढ़ गया। सुबह के 4 बजकर 55 मिनट की ट्रेन का इंतज़ार करते हुए वो वहीं बैठ गया।
दूसरी तरफ...
करिश्मा की नींद अचानक खुल गई। वह अभिमन्यु के घर में, उसके कमरे में सो रही थी। उसने चारों ओर देखा और समझ गई कि अभिमन्यु उसे छोड़कर जा चुका है। उसके दिल में एक हल्की सी उदासी छा गई। उसने पास की टेबल पर नज़र डाली, जहाँ उसकी और अभिमन्यु की एक तस्वीर रखी थी। तस्वीर में दोनों मस्ती करते हुए हंस रहे थे, और उन्होंने एक जैसी स्कूल ड्रेस पहनी हुई थी। उस तस्वीर को देखकर करिश्मा के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आई, लेकिन उसकी आँखों में हल्का सा दर्द भी झलक रहा था।
कमरे में सुबह की हल्की रोशनी आने लगी थी, लेकिन करिश्मा के मन में अब सवाल थे—अभिमन्यु कहां गया?
अभिमन्यु जब रेलवे स्टेशन पर पहुँचा, तो वहाँ का माहौल हलचल से भरा हुआ था। प्लेटफॉर्म पर लोग इधर-उधर अपने सामान के साथ घूम रहे थे। कुछ लोग अपनी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे, तो कुछ जल्दबाजी में चल रहे थे, मानो वे ट्रेन छूट जाने के डर में हों। स्टेशन पर चायवालों की आवाज़ और लोगों की बातचीत से चारों तरफ का माहौल गूंज रहा था। रात का सन्नाटा अब खत्म हो चुका था और स्टेशन का जीवन पूरी तरह से जीवंत हो उठा था।
अभिमन्यु ने भीड़ में से अपना रास्ता बनाया और ट्रेन के स्लीपर डिब्बे की तरफ बढ़ा। वहाँ पहले से ही बहुत सारे लोग जमा थे, लेकिन अभिमन्यु को सीट लेने की जल्दी नहीं थी। उसकी चाल में आत्मविश्वास था। जैसे ही ट्रेन प्लेटफार्म पर रुकी, लोग जल्दबाज़ी में अंदर घुसने लगे, सीट लेने की होड़ मच गई, लेकिन अभिमन्यु आराम से ट्रेन के अंदर गया। वो किसी सामान्य यात्री की तरह था, लेकिन उसकी चाल में कुछ खास था, मानो उसे किसी चीज़ की चिंता नहीं थी।
अंदर जाकर उसने टीसी को ढूँढा और उसे कुछ पैसे दिए, इस उम्मीद में कि उसे एक सीट मिल जाए। टीसी ने थोड़े संकोच के बाद उसे एक खाली सीट दी जो की सबसे उपर की थी जिसमे लोग सो भी सकते थे, जो शायद किसी के रिज़र्वेशन के बाद खाली रह गई थी। सीट लेकर अभिमन्यु ने टीसी को धन्यवाद कहा और फिर उसपर चढ़कर सो गया। चारों तरफ हलचल हो रही थी, लेकिन उसके भीतर एक अजीब सा सुकून था। उसने अपनी आँखें बंद कीं और थोड़ी ही देर में नींद की गोद में चला गया।
ट्रेन की धीमी आवाज़ें, पहियों का खड़खड़ाना, और यात्रियों की हल्की-फुल्की बातचीत उस शांत वातावरण में घुलने लगे। अब ट्रेन अपने सफर पर निकल पड़ी थी और अभिमन्यु सीट पर निश्चिंत होकर सो चुका था। उसकी आँखों में न कोई चिंता थी, न ही किसी प्रकार का डर। वह एक यात्री था, लेकिन उसके पास जो था, वह उसे दूसरों से बिल्कुल अलग बनाता था—उसकी तलवार।
अभिमन्यु की तलवार एक खास धातु से बनी थी, जिसके बारे में उसे खुद भी ज्यादा जानकारी नहीं थी। यह धातु अद्वितीय और रहस्यमयी थी। यह तलवार बाहर से एक साधारण काले डंडे की तरह दिखती थी। अगर कोई इसे देखता, तो उसे बिल्कुल आम और बेकार समझता, लेकिन वास्तव में यह एक घातक हथियार था। तलवार को इस तरह से ढाला गया था कि वह किसी भी आधुनिक सुरक्षा उपकरण, जैसे कि मेटल डिटेक्टर, पर पकड़ में नहीं आती थी। उसकी खासियत यही थी कि किसी भी मेटल डिटेक्टर के सामने ये हथियार अदृश्य हो जाता था, मानो उसमें कोई धातु हो ही न। इसने अभिमन्यु को कई बार बचाया था, और यही वजह थी कि वह इसे हमेशा अपने साथ रखता था।
तलवार को बनवाने वाले व्यक्ति के बारे में अभिमन्यु को कुछ भी जानकारी नहीं थी, लेकिन एक बात वो जानता था कि यह साधारण तलवार नहीं थी। यह तलवार उसकी सबसे बड़ी साथी थी, चाहे कोई भी मुश्किल आ जाए। इसे उसने कई लड़ाइयों और खतरनाक परिस्थितियों में इस्तेमाल किया था, लेकिन हर बार इसने उसे सुरक्षित रखा। इसकी धार इतनी तेज़ थी कि एक ही वार में दुश्मन को चित कर सकती थी।
ट्रेन की गति अब और तेज़ हो चुकी थी। अभिमन्यु ने अपनी कटाना को गले से लगा रखा था, और गहरी नींद में सो गया था।