सुमित्रा के हाथों में वह कागज़ अब भी काँप रहा था। "तुमने मेरे साथ खेलना शुरू किया है, अब खेल खत्म करने का समय आ गया है।" शब्द उसकी आँखों के सामने जलती हुई लकीरों की तरह तैर रहे थे। उसने धीरे-धीरे सिर उठाया। सामने खड़ा काले कपड़ों वाला व्यक्ति अब भी अपनी बर्फ़ जैसी ठंडी आँखों से उसे घूर रहा था।
"क...कौन हो तुम?" सुमित्रा की आवाज़ काँप गई।
वह आदमी कुछ नहीं बोला। सिर्फ़ हल्की सी मुस्कान के साथ अपनी जेब से एक छोटी सी घड़ी निकाली और उसकी तरफ़ उछाल दी। घड़ी हवा में घूमती हुई सुमित्रा के पैरों के पास गिरी।
सुमित्रा ने हिम्मत जुटाकर उसे उठाया। घड़ी की सुइयाँ उलटी दिशा में घूम रही थीं—12:59...12:58...12:57... मानो यह कोई उलटी गिनती हो!
तभी, अचानक, घर की सारी लाइटें झपकने लगीं। कमरा अंधेरे और रोशनी के बीच झूलने लगा। बाहर से तेज़ हवाओं की गूँज उठी और घर के दरवाज़े खड़खड़ाने लगे। सुमित्रा ने घबराकर पुलिस अफ़सर की तरफ़ देखा, लेकिन वह अब भी उसी जगह खड़ा था, बिना किसी डर के।
"क्या हो रहा है?" सुमित्रा ने कांपते हुए पूछा।
पुलिस अफ़सर ने गहरी साँस ली। "खेल अब अपने आखिरी दौर में पहुँच चुका है, सुमित्रा। अब तुम्हें तय करना होगा—सच जानना है, या अपने बेटे को बचाना है।"
सुमित्रा की आँखों में गुस्सा भड़क उठा। "मैं अपने बेटे को बचाने के लिए कुछ भी करूँगी!"
"तो फिर तैयार हो जाओ, क्योंकि अब मौत का तांडव शुरू होने वाला है!" पुलिस अफ़सर की आवाज़ गूँज उठी।
बिजली कड़की... और अंधेरा छा गया!
अचानक, घर की सारी खिड़कियाँ खुद-ब-खुद खुल गईं और हवा के तेज़ झोंके अंदर घुस आए। सुमित्रा का पूरा शरीर ठंड से सुन्न हो गया। तभी, दीवार पर लगे आईने में कुछ हलचल हुई।
सुमित्रा का दिल ज़ोर से धड़क उठा। वह आईने के पास गई और जैसे ही उसने उसमें झाँका, उसका खून जम गया।
आईने में उसके पीछे कोई खड़ा था।
उसकी साँसें तेज़ हो गईं। उसने तुरंत पलटकर देखा—पर वहाँ कोई नहीं था!
पर जब उसने दोबारा आईने में देखा...
आरव!
हाँ, आरव आईने के अंदर था! उसका चेहरा उतरा हुआ था, आँखों के नीचे गहरे काले धब्बे थे। उसकी आँखें मदद के लिए पुकार रही थीं।
"मम्मा!" आरव की आवाज़ में दर्द था। "बचाओ मुझे... मुझे यहाँ से निकालो..."
सुमित्रा के रोंगटे खड़े हो गए। "आरव! बेटा! मैं आ रही हूँ!"
उसने हाथ बढ़ाया, लेकिन तभी आईने में एक काला हाथ उभरा और आरव का मुँह दबा दिया। उसकी चीखें गूँज उठीं और फिर अचानक—
आईना चकनाचूर हो गया!
"नहीं!!!" सुमित्रा चीख पड़ी।
आईने के टूटते ही कमरे में एक डरावनी हंसी गूँज उठी। वही हंसी, जो उसने पहले भी सुनी थी।
पुलिस अफ़सर ने तुरंत अपने जेब से एक पेंडुलम निकाला और हवा में घुमाया। अचानक, दीवार पर कुछ चमकने लगा। जैसे ही सुमित्रा ने गौर से देखा, उसे वहाँ एक अजीब सा प्रतीक दिखा—एक त्रिभुज जिसके बीच में एक आँख बनी थी।
"क्या है ये?" सुमित्रा ने काँपते हुए पूछा।
"ये उस काले रहस्य की पहचान है, जिसने हरीश को मारा था और अब तुम्हारे बेटे को छीन रहा है।" पुलिस अफ़सर की आवाज़ भारी हो गई।
सुमित्रा का दिमाग़ घूमने लगा। "तुम कहना क्या चाहते हो?"
पुलिस अफ़सर ने उसकी आँखों में देखा। "तुम्हारे पति की मौत एक बलिदान था, और अब तुम्हारे बेटे की बारी है।"
सुमित्रा के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
"नहीं... नहीं!"
"अगर तुमने इसे नहीं रोका, तो आरव हमेशा के लिए खो जाएगा!"
सुमित्रा की आँखों में आँसू थे, लेकिन अब डर से नहीं, बल्कि ग़ुस्से से। "मैं इसे होने नहीं दूँगी!"
पुलिस अफ़सर ने उसकी तरफ़ एक चाकू बढ़ाया। "तो तुम्हें एक आखिरी परीक्षा देनी होगी। ये चाकू उस शख़्स के लिए है, जिसने तुम्हारे परिवार को तोड़ा।"
सुमित्रा ने काँपते हुए चाकू पकड़ा।
"कौन है वो?" उसने पूछा।
"तुम खुद देख लो," पुलिस अफ़सर ने धीरे से कहा।
और तभी, दरवाज़ा ज़ोर से खुला...
सामने खड़ा था हरीश!
हाँ! हरीश ज़िंदा था!
सुमित्रा की आँखें फटी की फटी रह गईं। "त... तुम तो मर गए थे!"
हरीश की आँखों में गहरा सन्नाटा था। "नहीं, सुमित्रा... मैं कभी मरा ही नहीं। मैंने ही ये सब किया है।"
सुमित्रा का दिमाग़ सुन्न हो गया। "मतलब... आरव... मेरी ज़िंदगी की ये तबाही..."
हरीश धीरे-धीरे आगे बढ़ा। "तुमने कभी नहीं सोचा कि मेरी मौत इतनी आसान कैसे हो गई? तुमने कभी नहीं सोचा कि पुलिस अफ़सर हमेशा तुम्हारे आसपास क्यों था? क्योंकि यह सब एक योजना थी!"
सुमित्रा के हाथ से चाकू गिर गया।
"लेकिन क्यों?" उसकी आवाज़ काँप रही थी।
हरीश ने हल्की मुस्कान दी। "क्योंकि यह सिर्फ़ तुम्हारे बेटे का खेल नहीं था। यह खेल तुम्हारा भी था, सुमित्रा। और अब इस खेल का असली अंत होने वाला है।"
"मतलब?"
हरीश ने जेब से एक छोटी सी शीशी निकाली और उसे ज़मीन पर गिरा दिया।
शीशी टूटते ही पूरी हवेली की दीवारें काँपने लगीं। हर जगह से खून की धाराएँ बहने लगीं। आईने टूटने लगे।
और फिर...
"अब खेल खत्म!" हरीश ने ज़ोर से चिल्लाया।
अचानक, दरवाज़े के पीछे से एक चीख उठी!
"मम्मा!!! बचाओ!!!"
सुमित्रा ने पलटकर देखा। आरव खून से सना खड़ा था, और उसके पीछे कोई था!
लेकिन वह कोई इंसान नहीं था...
वह कोई चीज़ थी...
कुछ अंधेरा, कुछ विकराल, कुछ ऐसा... जो इंसानी दुनिया का हिस्सा नहीं था!
सुमित्रा की आँखों में मौत का डर था।
"तुमने इस खेल को खत्म करने में बहुत देर कर दी, सुमित्रा!"
अचानक, वह काली परछाईं ज़ोर से हँसने लगी...
और फिर...
कमरा अंधकार में समा गया! अंधकार में सब कुछ विलीन हो गया। हवेली की दीवारें कंपन कर रही थीं। खून से सने आरव के पीछे वह भयानक परछाईं खड़ी थी—एक अंधेरा, जो किसी भी इंसानी डर से परे था।
"तुमने बहुत देर कर दी, सुमित्रा!" हरीश की आवाज़ गूँजी।
सुमित्रा का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। "तुम... तुम कौन हो?!"
हरीश मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान में अब एक अजीब सी शैतानी चमक थी। उसने अपनी जेब से वही घड़ी निकाली, जो सुमित्रा के पैरों में गिरी थी। इस बार घड़ी की सुइयाँ और तेज़ उलटी दिशा में घूम रही थीं—00:10… 00:09… 00:08…
"अब कोई नहीं बचेगा। न तुम, न आरव।" हरीश की आवाज़ में एक ठंडापन था।
सुमित्रा ने घबराकर आरव की तरफ़ देखा, लेकिन अब वह अपनी जगह पर स्थिर खड़ा था, उसकी आँखें पूरी तरह काली हो चुकी थीं।
"आरव!!" सुमित्रा चीख पड़ी और उसकी तरफ़ भागी। लेकिन तभी, पुलिस अफ़सर ने उसका हाथ पकड़ लिया। "अब बहुत देर हो चुकी है, सुमित्रा!"
"नहीं!!!" सुमित्रा ने अपना हाथ छुड़ाया और आरव को पकड़ने के लिए बढ़ी, लेकिन जैसे ही उसने आरव का हाथ छुआ…
धड़ाम!!
पूरी हवेली एक झटके से ज़मीन में धंसने लगी। दीवारें दरारों में बदल गईं, फर्श पर खून की धाराएँ बहने लगीं, और हवा में अजीब-अजीब सी फुसफुसाहटें गूँजने लगीं।
"खेल खत्म हो चुका है," हरीश की आवाज़ चारों तरफ़ गूँज रही थी, लेकिन अब उसकी आवाज़ इंसानी नहीं लग रही थी… उसमें कुछ था… कुछ ऐसा, जो इस दुनिया का नहीं था।
सुमित्रा का शरीर सुन्न हो गया। "नहीं… यह सच नहीं हो सकता… तुम हरीश नहीं हो!"
हरीश की हंसी गूँज उठी। "असली हरीश तो कब का मर चुका है, सुमित्रा। तुम जिसे देख रही हो, वह बस उसकी परछाईं है।"
पुलिस अफ़सर ने घुटनों के बल बैठते हुए अपनी जेब से एक पुराना कागज़ निकाला। "सुमित्रा… तुम्हें याद है कि हरीश के मरने के बाद तुम्हें एक कागज़ मिला था?"
सुमित्रा की आँखें चौड़ी हो गईं। "हाँ… लेकिन…"
अचानक, पुलिस अफ़सर ने वह कागज़ हवा में उछाल दिया। वह जल उठा और उसमें से वही त्रिभुज वाला निशान प्रकट हुआ।
"यह सब तुम्हारे साथ पहली बार नहीं हो रहा, सुमित्रा!"
सुमित्रा ने घबराकर पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन उसकी पीठ किसी ठोस चीज़ से टकराई।
"तुम पहले भी मर चुकी हो, सुमित्रा!"
सुमित्रा के अंदर एक अजीब सा कंपन हुआ। "यह झूठ है!" हरीश आगे बढ़ा, उसकी आँखों में गहरा अंधेरा था। "सच हमेशा दर्दनाक होता है। यह सब एक लूप है, सुमित्रा! तुम्हारी ज़िंदगी, तुम्हारा परिवार, यह हवेली… सब कुछ बस एक दोहराया जाने वाला खेल है!" सुमित्रा का सिर चकरा गया। "न… नहीं…!!!"
"तुम हर बार मरती हो और हर बार इस खेल में वापस आ जाती हो।"
"तुम झूठ बोल रहे हो!" सुमित्रा ने गुस्से में कहा, लेकिन उसके हाथ काँप रहे थे।
"अगर यकीन नहीं होता तो आईना देखो!"
सुमित्रा ने काँपते हाथों से आईने की तरफ़ देखा, और जैसे ही उसने उसमें झाँका…
"नहीं!!!!!!!!"
आईने में सुमित्रा की परछाईं थी… लेकिन वह एक लाश थी!
उसका चेहरा सफेद पड़ चुका था, आँखें अंदर धंस चुकी थीं, और उसके गले पर गहरे घाव थे—जैसे किसी ने उसे गला घोंटकर मार दिया हो। आईने में ही, उसके ठीक पीछे हरीश खड़ा था, वही काला साया उसकी आत्मा को निगलते हुए।
"अब तुम समझीं?" हरीश की आवाज़ गूँज उठी। "यह सब तुम्हारे ही कारण हुआ था, सुमित्रा।"
सुमित्रा पीछे हटते हुए फर्श पर गिर पड़ी।
"अब कोई रास्ता नहीं बचा, सुमित्रा। खेल खत्म होने वाला है। लेकिन इस बार, तुम हमेशा के लिए मिट जाओगी!"
घड़ी की आखिरी गिनती खत्म हो रही थी—
00:03… 00:02… 00:01…
सुमित्रा की आँखों से आँसू बहने लगे। "आरव…"
और फिर…
घड़ी की सुइयाँ रुक गईं।
धड़ाम!!
पूरी हवेली ज़मीन में समा गई… और फिर…
एक गहरी, डरावनी शांति छा गई।
सन्नाटा। हर तरफ़ बस सन्नाटा था।
सुमित्रा की आँखें धीरे-धीरे खुलीं। वह ठंडे पत्थर पर पड़ी थी। चारों तरफ़ घना अंधेरा था। हवेली… अब वहाँ नहीं थी।
"म… मैं ज़िंदा हूँ?" उसकी आवाज़ कंपकंपा रही थी। लेकिन जैसे ही उसने उठने की कोशिश की, उसे महसूस हुआ कि उसकी कलाई में कुछ बंधा हुआ है।
"यह क्या—?"
उसने हाथ आगे बढ़ाया, तो उसकी कलाई पर वही घड़ी बंधी हुई थी—जिसकी सुइयाँ उलटी दिशा में चल रही थीं! लेकिन इस बार… समय आगे नहीं बढ़ रहा था।
00:00:00
घड़ी की सुइयाँ थम चुकी थीं।
"यह… यह सब क्या हो रहा है?" उसने घबराकर इधर-उधर देखा। अचानक, दूर कहीं से धीमी हंसी सुनाई दी।
"तुमने सच देख लिया, सुमित्रा… अब लौटने का कोई रास्ता नहीं बचा।"
सुमित्रा ने सिर उठाया। अंधेरे में कोई खड़ा था। लंबा, काले कपड़ों में लिपटा हुआ। उसकी आँखों से सिर्फ़ गहरा सन्नाटा झलक रहा था।
"क… कौन हो तुम?" सुमित्रा की आवाज़ कांप गई।
फिर वही हंसी… और फिर—
"मैं? मैं वही हूँ, जिसने यह खेल शुरू किया था।"
उस शख़्स ने धीरे-धीरे अपना हाथ बढ़ाया, और उसकी हथेली में एक पुराना, जला हुआ काग़ज़ था।
सुमित्रा ने काँपते हुए काग़ज़ लिया। जैसे ही उसने उसे खोला…उसकी सांसें रुक गईं। काग़ज़ पर सिर्फ़ एक नाम लिखा था—
"सुमित्रा हरीश वर्मा – मृत्युपत्र (Death Certificate)"
तारीख़: 13 साल पहले
सुमित्रा के हाथ से काग़ज़ गिर गया।
"य… यह झूठ है! मैं मरी नहीं हूँ!" लेकिन तभी…
उसके सामने खड़ा वह शख़्स धीरे-धीरे आगे बढ़ा। और जैसे ही चाँद की हल्की रोशनी उसकी शक्ल पर पड़ी… सुमित्रा की रूह काँप गई।
वह शख़्स… कोई और नहीं, बल्कि खुद पुलिस अफ़सर था! लेकिन… उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसकी आँखें पूरी तरह काली थीं।
"तुम… तुम पुलिस अफ़सर नहीं हो!"
अचानक, पुलिस अफ़सर के चेहरे पर एक डरावनी मुस्कान आई।
"अब तुम समझीं, सुमित्रा?" उसकी आवाज़ गूँज उठी।
"यह खेल कभी तुम्हारा था ही नहीं। असली शिकार… हमेशा से तुम ही थीं!" अचानक, चारों ओर से हवाओं का एक ज़बरदस्त झोंका उठा। ज़मीन हिलने लगी। सुमित्रा ने खुद को संभालने की कोशिश की, लेकिन तभी—
"मम्मा!!!!" आरव की चीख़ गूँजी।
सुमित्रा का दिल ज़ोर से धड़क उठा। "आरव!!"
उसने पलटकर देखा… और जो दिखा… उसकी आत्मा काँप गई। आईने के टुकड़ों में, आरव फँसा हुआ था। लेकिन…
उसके ठीक पीछे… वही परछाईं खड़ी थी।
लेकिन इस बार… वो परछाईं हरीश की नहीं थी।
वो…
खुद सुमित्रा की थी।
अब आगे क्या होगा?
क्या सुमित्रा सच में मरी हुई है?
अगर हाँ, तो पिछले 13 सालों से जी कौन रहा था—सुमित्रा, या कोई और?
आरव आईने में कैसे फँसा?
और सबसे बड़ा सवाल—यह खेल किसने और क्यों शुरू किया?
जब सच्चाई और धोखे की लकीर मिटने लगे, जब अंधेरा हकीकत को निगलने लगे—तब क्या कोई बच सकता है?
जानने के लिए पढ़िए—
"घर का चिराग" – एपिसोड 5
🚪जहाँ हर दरवाज़ा मौत की ओर खुलता है…