मौत का द्वार

चारों तरफ़ अंधेरा था। हवाएँ सरसराहट कर रही थीं। सुमित्रा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। उसके सामने आईने के टुकड़ों में फँसा आरव था, और उसके पीछे खड़ी थी वो परछाईं... जो बिल्कुल उसी की तरह दिख रही थी!

"तुम... कौन हो?" सुमित्रा की आवाज़ काँप गई।

परछाईं ने धीरे से अपना सिर झुकाया और अजीब-सी हंसी हंसने लगी। "तुम अब भी नहीं समझीं, सुमित्रा? मैं... तुम ही हूँ!"

"नहीं... नहीं! यह झूठ है!" सुमित्रा पीछे हटी, लेकिन तभी ज़मीन ज़ोर से हिली। हवेली के दरवाज़े और खिड़कियाँ ज़ोर-ज़ोर से पटपटाने लगीं। दीवारों से खून बहने लगा।

"मम्मा!!!" आरव की दर्द से भरी चीख़ फिर गूँजी।

सुमित्रा ने हिम्मत जुटाकर आईने की तरफ़ बढ़ाया हाथ, लेकिन तभी हवा में एक ज़ोरदार झटका लगा और वह पीछे गिर गई।

"हाहाहा... यह सब इतना आसान नहीं है, सुमित्रा!" परछाईं की आवाज़ गूँज उठी। "तूने इस खेल में बहुत देर कर दी, और अब तुझे अपने ही खून से इसे खत्म करना होगा!"

धड़ाम!!!

अचानक, हवेली के बीचों-बीच ज़मीन फट गई और वहाँ से एक लोहे का कटा-फटा गेट उभर आया। उस गेट के पीछे सिर्फ़ अंधेरा था। एक गहरी, डरावनी गूँज उठी।

"अगर तुझे अपना बेटा वापस चाहिए," परछाईं ने मुस्कराते हुए कहा, "तो इस गेट के अंदर आना होगा। लेकिन याद रख... यहाँ से वापस आने का कोई रास्ता नहीं है!"

सुमित्रा की आँखों में आंसू थे, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसने अपनी सारी हिम्मत बटोरी और दौड़कर गेट की तरफ़ बढ़ी।

"मैं आ रही हूँ, आरव!"

गेट पार करते ही सुमित्रा को ऐसा लगा जैसे वह किसी दूसरी दुनिया में आ गई हो। यहाँ हर तरफ़ घना कोहरा था। हवा में सड़े हुए मांस की गंध थी। दूर-दूर तक फैली हुई लाशें पड़ी थीं, और उनके शरीर पर गहरे काले निशान थे—मानो किसी ने उन्हें ज़िंदा ही जला दिया हो।

"यह... यह जगह क्या है?" सुमित्रा ने काँपते हुए खुद से पूछा।

तभी, अचानक—

धड़ाम!!!

पीछे से दरवाज़ा खुद-ब-खुद बंद हो गया!

"अब कोई रास्ता नहीं बचा, सुमित्रा!"

सुमित्रा ने पीछे पलटकर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। सिर्फ़ धुंध और अंधेरा था।

"मम्मा..."

सुमित्रा ने चौंककर सामने देखा। आईने के बीचों-बीच, एक लोहे की कुर्सी पर बंधा हुआ आरव बैठा था। उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं। उसका शरीर काँप रहा था। और उसके सिर के ठीक ऊपर लटक रही थी एक भरी हुई कटार... जो किसी भी पल उसके ऊपर गिर सकती थी!

"आरव!!!" सुमित्रा दौड़कर उसकी तरफ़ बढ़ी, लेकिन तभी ज़मीन से कई हाथ निकले और उसके पैरों को जकड़ लिया!

"नहीं!!!" सुमित्रा छटपटाई, लेकिन वे हाथ उसे और गहराई में खींचने लगे। तभी, धुंध में से एक काला साया उभरा।

हरीश!

हाँ! वही हरीश, जिसका चेहरा अब पूरी तरह अंधेरे से ढका हुआ था। "तूने बहुत देर कर दी, सुमित्रा!" उसकी आवाज़ में अब शैतानियत थी। "अब यह खेल खत्म करने का वक़्त आ गया है!"

हरीश ने अपने हाथ ऊपर उठाए। अचानक, चारों तरफ़ आग की लपटें उठने लगीं! हवा में चीखें गूँजने लगीं।

"मम्मा... बचाओ!"

आरव की दर्द भरी चीख़ गूँजी। उसकी कुर्सी और ऊपर उठने लगी, और कटार अब उसके सिर से सिर्फ़ कुछ इंच की दूरी पर थी!

"अगर तुझे इसे बचाना है, तो तुझे अपने सबसे गहरे डर का सामना करना होगा!" हरीश ज़ोर से चिल्लाया।

सुमित्रा के दिल में ग़ुस्से की लहर दौड़ पड़ी। उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर उन हाथों को झटक दिया और दौड़कर हरीश के सामने आ खड़ी हुई।

"अगर यह खेल खत्म करना है, तो अब मैं इसे खत्म करूँगी!"

हरीश ने एक डरावनी हंसी हंसी और हवा में हाथ घुमाया। अचानक, ज़मीन से कई और परछाइयाँ निकलीं—बिल्कुल सुमित्रा की तरह दिखने वाली। "अब देख, असली सुमित्रा कौन है!" परछाइयाँ ज़ोर से चीख़ीं और सुमित्रा पर टूट पड़ीं!

धड़ाक!!!

सुमित्रा ज़मीन पर गिरी। एक परछाईं ने उसका गला जकड़ लिया। दूसरी ने उसकी कलाई मरोड़ दी। एक ने उसके चेहरे पर तेज़ नाखून मार दिए।

"नहीं!!!"

सुमित्रा ने हिम्मत जुटाकर ज़ोर से धक्का दिया और एक परछाईं को पीछे गिरा दिया। लेकिन तभी...

छपाक!!!

हरीश ने हवा में हाथ घुमाया और सुमित्रा के सीने में एक नुकीला भाला घोंप दिया!

"आहहहहह!!!"

खून की धारा बह निकली। सुमित्रा की आँखें फैल गईं। उसके चेहरे से रंग उड़ गया।

"अब यह खेल खत्म!" हरीश ज़ोर से चिल्लाया और फिर-कटार नीचे गिर पड़ी!!!

"नहीं!!!!"

अचानक, एक ज़ोरदार बिजली कड़की और पूरी जगह हिल गई। हवाओं ने भयंकर रूप धारण कर लिया। ज़मीन कांपने लगी।

सुमित्रा की धुंधली आँखों के सामने, हवा में एक चमकता हुआ त्रिभुज उभर आया।

"यह... यह क्या हो रहा है?" हरीश घबराया।

तभी, एक अजीब-सी गूँज उठी। "यह खेल अभी खत्म नहीं हुआ है..." हरीश ने चौंककर ऊपर देखा। आसमान पूरी तरह काला पड़ चुका था। आग की लपटें नीली होने लगीं।

और फिर—

"अब मैं आई हूँ, यह तमाशा खत्म करने!"

एक काली परछाईं तेज़ी से ज़मीन पर उतरी। उसकी आँखें चमक रही थीं। उसके हाथ में एक चमचमाता खंजर था।

सुमित्रा ने दर्द में अपने हाथ उठाए और अपनी तरफ़ आती उस परछाईं को देखा।

वह... कोई और नहीं...

बल्कि...स्वयं सुमित्रा थी!

चारों ओर अंधेरा था। हवा में बारूद और जलते मांस की गंध थी। लपटें अब नीले रंग में बदल चुकी थीं, और ज़मीन बार-बार काँप रही थी। सुमित्रा का धड़कता दिल अचानक एक पल के लिए थम गया जब उसने खुद को अपने ही सामने खड़ा देखा—वही चेहरा, वही आँखें, लेकिन उन आँखों में आग थी।

"तू... कौन है?" सुमित्रा ने कराहते हुए पूछा।

"मैं... वो हूँ जो इस खेल का अंत करने आई है!" उसकी परछाईं ने जवाब दिया।

हरीश, जो अब तक ताकतवर दिख रहा था, अचानक पीछे हटने लगा। "यह... यह कैसे मुमकिन है?"

परछाईं हंसी, लेकिन वह हंसी डरावनी थी। "बहुत देर कर दी तूने, हरीश!"

हरीश ने गुस्से से दाँत पीसे और हवा में हाथ घुमाया। अचानक, ज़मीन में से काले धुएं से बने दैत्याकार जीव उभरने लगे। उनकी आँखें लाल थी, उनके दाँत लंबे और नुकीले थे।

"सुमित्रा, तुझे और तेरे बेटे को मारने के लिए मुझे अब किसी चाल की जरूरत नहीं!" हरीश चीखा।

सारे दैत्य सुमित्रा और उसकी परछाईं की तरफ़ बढ़ने लगे।

"मम्मा..." आरव की दर्द से भरी आवाज़ गूँजी।

सुमित्रा की नज़रें ऊपर गईं—कटार अब उसके सिर से सिर्फ़ कुछ सेंटीमीटर की दूरी पर थी।

"नहीं!"

उसने पूरी ताकत से संघर्ष किया और अपनी परछाईं के साथ मिलकर उन दैत्यों पर टूट पड़ी।

छपाक!

पहले दैत्य का सिर धड़ से अलग हो गया। खून की धाराएँ फूट पड़ीं।

धड़ाक!

दूसरे के पेट के आर-पार एक चमचमाता खंजर चला गया। वह चीख़ता हुआ जलने लगा।

"तू सोचता है कि मैं हार जाऊँगी?" सुमित्रा ज़ोर से चिल्लाई और हवा में एक और वार किया। लेकिन तभी—

हरीश ने अचानक अपने हाथ हवा में उठाए और ज़मीन हिलने लगी। "अब यह खेल मैं खत्म करूँगा!!!"

अचानक, सुमित्रा और उसकी परछाईं ज़मीन में धँसने लगीं।

"नहीं!"

कटार गिरने वाली थी। आरव की आँखें बंद हो गईं।

सुमित्रा की आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा।

तभी अचानक—

"बस बहुत हुआ।" एक भारी आवाज़ गूँजी।

हरीश पलटा—लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।

धाँय!

एक गोली सीटी बजाते हुए आई और उसके हाथ को छलनी कर दिया।

"आहहह!" हरीश चीख़ पड़ा।

धुँध के बीच से एक साया उभरा—लंबा, गठीला शरीर, आँखों में जिद और चेहरे पर गुस्सा।

"खेल खत्म, हरीश!"

पुलिस अफ़सर वीर प्रताप सिंह!

वीर ने हवा में एक और गोली चलाई। इस बार वह ठीक हरीश के सीने के पास से गुज़री।

"तू... तू यहाँ क्या कर रहा है?" हरीश ने दाँत भींचते हुए कहा।

वीर ने सुमित्रा की तरफ़ देखा और कहा, "तुम ठीक हो?"

सुमित्रा कुछ कहती, इससे पहले ही—

कटार नीचे गिरने लगी!

"नहीं!!!"

सुमित्रा ने छलांग लगाई।

छपाक!!!

खून की धाराएँ बिखर गईं।

आरव की आँखें फटी रह गईं।

कटार... हरीश के सीने में जा घुसी थी!

"आहहहहह!!!"

हरीश ज़मीन पर गिर पड़ा। उसकी आँखों में अजीब-सा डर था। "यह... यह नहीं हो सकता..." उसने कराहते हुए कहा।

परछाईं ने उसके करीब जाकर फुसफुसाया, "खेल खत्म, हरीश।"

सुमित्रा ने लड़खड़ाते हुए आरव को बाँहों में उठाया।

"आरव... बेटा, तू ठीक है?"

आरव ने धीरे से सिर हिलाया। लेकिन तभी—

धड़ाम!!! पूरी हवेली हिलने लगी।

"यह क्या हो रहा है?" वीर प्रताप सिंह ने घबराकर कहा।

सुमित्रा ने देखा—हरीश हँस रहा था।

"तुम लोग... सोचते हो कि सब खत्म हो गया? "उसकी आवाज़ अब शैतानी लग रही थी।

"लेकिन... यह तो बस... शुरुआत है!!!"

अचानक, हवेली के बीचों-बीच से एक और दरवाजा उभरने लगा—और उसके अंदर एक और अंधेरा था... उससे भी गहरा! सुमित्रा और वीर प्रताप सिंह ने चौंककर उसे देखा।

दरवाज़े के पीछे से एक परछाईं निकली... लेकिन वो हरीश की नहीं थी। वो किसी और की थी...

"तुमने बहुत बड़ी ग़लती कर दी..." एक और खेल शुरू हो चुका था!

अब असली खेल शुरू होगा|

जिस दरवाज़े को बंद समझ रहे थे, वो तो असल में अब खुला है!

दरवाजे के पीछे कौन है?

हरीश की असली सच्चाई क्या है?

और इस नई परछाईं का क्या राज़ है?

क्या सच में खेल खत्म हो चुका है?

या फिर... यह तो सिर्फ़ शुरुआत थी?

क्या सुमित्रा और आरव इस अंधेरे से बच पाएंगे?

या फिर... यह सिर्फ़ एक नए डर की पहली दस्तक है?

जानने के लिए पढ़िए – घर का चिराग – एपिसोड 6!

असली खेल अभी बाकी है...!