किसकी चाल, किसका खेल

घर का चिराग – एपिसोड 12

गुफा के मलबे के बीच वीर प्रताप का शरीर दब चुका था। सुमित्रा और व्यास पहाड़ी की चोटी पर खड़े थे, उनकी आँखों में वीर प्रताप के बलिदान की गहरी छाप थी। सूरज की रोशनी धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थी, जैसे प्रकृति भी वीर प्रताप के जाने का शोक मना रही हो।

सुमित्रा ने वीर प्रताप के आखिरी शब्दों को याद किया— "यही नियति थी… यह बलिदान जरूरी था…"।

"व्यास," उसने गहरी साँस लेते हुए कहा, "हमें वीर के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है। जो श्राप उसने तोड़ा है, उसके पीछे और भी राज़ हो सकते हैं।" व्यास ने ग्रंथ को मजबूती से पकड़ा और सिर हिलाया। "हमें यह जानना होगा कि क्या वाकई श्राप पूरी तरह समाप्त हो गया है, या यह सिर्फ़ एक शुरुआत थी।"

दोनों पहाड़ी से नीचे उतरने लगे, लेकिन जैसे ही वे नीचे पहुँचे, हवा में अजीब-सी हलचल होने लगी। पेड़ सरसराने लगे, और झील का पानी धीरे-धीरे गहराने लगा।

"यह क्या हो रहा है?" सुमित्रा ने चौंककर कहा।

व्यास ने ग्रंथ के बचे हुए पन्ने पलटे। "यह जगह शुद्ध हो रही है… वीर का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। लेकिन एक समस्या है…"

सुमित्रा ने उसकी ओर देखा, "क्या?"

व्यास की आवाज़ गंभीर थी, "हीरे की शक्ति के बिना इस स्थान को स्थिर नहीं रखा जा सकता। श्राप खत्म हो चुका है, लेकिन यह भूमि अब अस्थिर हो चुकी है। हमें जल्द ही यहाँ से निकलना होगा।"

दोनों तेज़ी से जंगल की ओर बढ़े, लेकिन अचानक सुमित्रा को एक अजीब अहसास हुआ। ऐसा लगा जैसे कोई छाया उनका पीछा कर रही हो। उसने मुड़कर देखा—पेड़ों के बीच एक हल्की परछाई दिखी।

"व्यास… वहाँ कुछ है," सुमित्रा ने धीरे से कहा।

व्यास ने भी उसी दिशा में देखा, लेकिन कुछ साफ नहीं दिखा। फिर भी, उसके मन में बेचैनी थी।

जैसे ही वे गाँव के करीब पहुँचे, उन्हें कुछ दूर से मंदिर की घंटियाँ सुनाई देने लगीं। लेकिन यह आवाज़ शांतिपूर्ण नहीं थी—यह किसी अनहोनी का संकेत दे रही थी। गाँव का मुख्य मंदिर रोशनी से घिरा था, लेकिन वहाँ का माहौल अजीब था। गाँव के लोग घबराए हुए दिख रहे थे।

एक बूढ़ा पुजारी भागता हुआ उनके पास आया। "सुमित्रा, व्यास… तुम दोनों जीवित हो! लेकिन… वीर प्रताप कहाँ है?"

सुमित्रा ने गहरी साँस ली और सिर झुका लिया। "वह… अब हमारे बीच नहीं है।"

गाँववालों की आँखों में डर और दुख का माहौल बन गया।

पुजारी ने काँपती आवाज़ में कहा, "तुम लोग भले ही श्राप को खत्म कर आए हो, लेकिन यहाँ एक और समस्या आ गई है। कल रात से मंदिर में अजीब घटनाएँ हो रही हैं। और सबसे भयानक बात यह है कि… वीर प्रताप की परछाई मंदिर के अंदर देखी गई है।"

सुमित्रा और व्यास दोनों चौंक गए।

"यह असंभव है!" सुमित्रा ने कहा।

पुजारी ने कांपते हुए कहा, "कई लोगों ने देखा है… वीर प्रताप के जैसे दिखने वाली एक परछाई मंदिर के अंदर घूम रही है।"

गाँव के मंदिर में हलचल मची थी। हर कोई डरा हुआ था। वीर प्रताप का बलिदान हो चुका था, लेकिन उसकी परछाई मंदिर में क्यों थी? सुमित्रा और व्यास ने मंदिर की ओर कदम बढ़ाए। हवा में अजीब-सा तनाव था, जैसे कोई अदृश्य ताकत उन्हें देख रही हो। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करते ही ठंडी हवा का झोंका आया। दीपक टिमटिमाने लगे। तभी एक परछाई धीरे-धीरे आकार लेने लगी।

"वीर प्रताप?" सुमित्रा ने काँपते हुए कहा।

परछाई स्थिर खड़ी रही, लेकिन उसकी आँखें चमक उठीं।

"यह वीर प्रताप नहीं है…" व्यास ने धीरे से कहा, "यह कुछ और है…"

तभी परछाई ने बोलना शुरू किया—

"रक्त श्राप अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। जो कुछ हुआ, वह बस एक पड़ाव था… अंतिम युद्ध अभी बाकी है…"

उधर, जंगल के पार एक वीरान स्थान पर, आरव बेसुध पड़ा था। उसका शरीर घावों से भरा था। जैसे ही उसकी आँखें खुलीं, उसे महसूस हुआ कि कुछ बदला-बदला सा है।

वह उठकर बैठा, लेकिन उसके भीतर अजीब-सी कमजोरी थी। "यह… कहाँ हूँ मैं?"

चारों ओर घना कोहरा था। अचानक एक आवाज़ आई—

"तुम जाग गए, आरव। पर अब तुम पहले जैसे नहीं रहे।"

आरव ने सिर घुमाया। उसके सामने एक बुजुर्ग साधु खड़े थे।

"तुम कौन हो?" आरव ने कठिनाई से पूछा।

"मैं वही हूँ, जिसने तुम्हें जन्म के समय से देखा है। तुम्हारी नियति यहाँ खत्म नहीं हुई, आरव।"

"क्या रक्त श्राप समाप्त हो चुका है?"

साधु ने गहरी सांस ली। "रक्त श्राप तोड़ा जा चुका है… पर जो शक्ति इसे नियंत्रित कर रही थी, वह अब जाग गई है।"

आरव के मन में हलचल मच गई। क्या इसका मतलब था कि उसने अभी असली लड़ाई देखी ही नहीं थी?

"अब आगे क्या?" आरव ने दृढ़ स्वर में पूछा।

साधु मुस्कुराए। "अब तुम्हें अपनी असली परीक्षा देनी होगी।"

मंदिर के अंदर सुमित्रा और व्यास परछाई की बातें सुनकर सकते में थे।

"तुम कौन हो?" सुमित्रा ने कठोर स्वर में पूछा।

परछाई धीरे-धीरे स्पष्ट होती गई।

"मैं वही हूँ, जिसने रक्त श्राप को जन्म दिया था। अब जब वीर प्रताप जा चुका है… आरव का नंबर है।"

सुमित्रा और व्यास की आँखें फटी रह गईं।

"क्या आरव अभी भी जिंदा है?" सुमित्रा ने खुद से कहा।

परछाई हँस पड़ी। "जिंदा… हाँ। पर कब तक, यह देखना बाकी है।"

(अब सवाल यह था—क्या आरव वाकई इस अंधेरे से लड़ पाएगा? या यह सिर्फ शुरुआत थी?)

आरव के सामने खड़े साधु की आँखों में गहरी गंभीरता थी। उनके शब्द आरव के मन में गूँज रहे थे—

"रक्त श्राप तोड़ा जा चुका है… पर जो शक्ति इसे नियंत्रित कर रही थी, वह अब जाग गई है।"

आरव ने अपनी हथेलियाँ देखीं। उसके शरीर की ऊर्जा पहले जैसी नहीं थी। वह अभी भी कमजोर महसूस कर रहा था।

"तो अब क्या?" आरव ने साधु से पूछा।

साधु ने धीरे से कहा, "अब तुम्हें अपने भीतर की असली शक्ति को जगाना होगा, क्योंकि तुम्हारे बिना इस अंधेरे का अंत संभव नहीं है। पर तुम्हारी यह परीक्षा आसान नहीं होगी।"

"कौन सी परीक्षा?" आरव की आँखों में सवाल था।

साधु ने अपनी छड़ी ज़मीन पर टकराई। अचानक चारों ओर की दुनिया बदल गई। जंगल की जगह अब एक विशाल रेगिस्तान जैसा स्थान था, जहाँ चारों ओर धूल उड़ रही थी और बीच में एक काला पत्थर रखा था।

"यह क्या जगह है?" आरव ने चारों ओर देखते हुए कहा।

साधु ने गहरी सांस ली। "यह तुम्हारी आत्मा की परीक्षा है। इस पत्थर के अंदर वह बुराई बंद है, जिसने रक्त श्राप को जन्म दिया था। अगर तुम इसे रोक नहीं सके, तो यह फिर से जाग जाएगा।"

"लेकिन रक्त श्राप तो खत्म हो चुका है ना?" आरव ने पूछा।

साधु मुस्कुराए, "श्राप को खत्म करना एक बात है, लेकिन उसकी जड़ को मिटाना दूसरी। यह परीक्षा तुम्हारी शक्ति की नहीं, तुम्हारे इरादों की होगी। देखना यह है कि तुम लालच, क्रोध और भ्रम से बच पाते हो या नहीं।"

आरव ने गहरी सांस ली और काले पत्थर की ओर बढ़ा। जैसे ही उसने पत्थर को छूआ, उसके आसपास की दुनिया फिर बदल गई। अब वह एक महल के अंदर था, जहाँ उसकी माँ, पिता और वीर प्रताप खड़े थे।

"आरव, मेरे बेटे!" उसकी माँ ने पुकारा।

आरव चौंक गया। "माँ?"

"हमें बचा लो, बेटा!" उसके पिता ने कहा।

"तुम्हारे बिना यह दुनिया बर्बाद हो जाएगी, आरव," वीर प्रताप ने कहा।

आरव का मन डगमगा गया। क्या यह सब सच था? या यह बस एक छलावा था?

उधर, सुमित्रा और व्यास अभी भी मंदिर के अंदर खड़ी उस परछाई को देख रहे थे।

"अगर तुम वही हो, जिसने रक्त श्राप को जन्म दिया, तो तुम्हारा असली उद्देश्य क्या है?" सुमित्रा ने पूछा।

परछाई हँसी, "मेरा उद्देश्य वही है जो हमेशा से था… बुराई का शासन! पर यह इतना आसान नहीं होगा। तुम्हें क्या लगता है कि वीर प्रताप सच में मर चुका है?"

सुमित्रा और व्यास चौंक गए।

"तुम झूठ बोल रहे हो!" व्यास ने कहा।

"अगर तुम ऐसा सोचते हो, तो मंदिर के उस कोने में जाकर देखो," परछाई ने कहा।

सुमित्रा और व्यास धीरे-धीरे उस कोने की ओर बढ़े। वहाँ एक काले रंग की छड़ी रखी थी, जिसके चारों ओर ऊर्जा लहरा रही थी। जैसे ही व्यास ने छड़ी को छूने की कोशिश की, अचानक वीर प्रताप की आवाज़ गूँज उठी—

"मत छूना!"

सुमित्रा और व्यास ने पीछे हटते हुए देखा—वीर प्रताप की परछाई अब और भी साफ़ दिखने लगी थी।

"वीर… तुम जिंदा हो?" सुमित्रा ने धीरे से कहा।

"नहीं, मैं मर चुका हूँ। पर मेरी आत्मा अभी भी इस दुनिया में अटकी हुई है। यह परछाई मेरी नहीं है, यह बस एक जाल है!" वीर प्रताप की आवाज़ गूँजी।

"तो फिर तुम यहाँ क्यों हो?" व्यास ने पूछा।

वीर प्रताप की परछाई ने कहा, "क्योंकि जब मैंने रक्त श्राप को तोड़ा, तो मेरी आत्मा पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई। अब यह बुराई मुझे अपने कब्जे में लेना चाहती है।"

इस बीच, अंधेरे की गहराइयों में, दंश एक गुफा में खड़ा था। उसके चारों ओर अजीब-सी आकृतियाँ घूम रही थीं।

"मुझे और शक्ति चाहिए," दंश ने कहा।

एक काली आकृति उसके सामने आई, "तुम्हारा दिल तो छुप चुका है, पर अगर तुम्हें और शक्ति चाहिए, तो तुम्हें अपनी आत्मा का एक हिस्सा त्यागना होगा।"

दंश मुस्कुराया, "मुझे कोई परवाह नहीं। अगर मुझे आरव को खत्म करने के लिए अपनी आत्मा बेचनी पड़े, तो मैं वह भी करूँगा।"

आकृति ने एक लाल पत्थर निकाला। "अगर तुम इसे छू लोगे, तो तुम्हारी शक्ति कई गुना बढ़ जाएगी। पर बदले में तुम्हारी चेतना पर मेरा अधिकार होगा।"

दंश ने बिना सोचे लाल पत्थर को पकड़ लिया। अचानक उसकी आँखें काली पड़ गईं और उसकी ऊर्जा और भी खतरनाक हो गई।

"अब… मैं अजेय हूँ!" दंश की आवाज़ अंधेरे में गूँज उठी।

इधर अब आरव का दिल तेज़ी से धड़क रहा था। उसके सामने खड़े उसके माता-पिता और वीर प्रताप की छवियाँ असली लग रही थीं। माँ की आँखों में आँसू थे, पिता का चेहरा चिंता से भरा था, और वीर प्रताप की आवाज़ में वही विश्वास था, जो हमेशा था।

"हमें बचाओ, आरव!"

आरव का दिल जोर से धड़का। क्या यह हकीकत थी? अगर वीर प्रताप की आत्मा सच में कष्ट में थी, तो क्या वह उसे छोड़ सकता था?

उसका मन डगमगा रहा था, तभी अचानक साधु की आवाज़ उसके कानों में गूँजी—

"याद रखो, यह परीक्षा तुम्हारी शक्ति की नहीं, बल्कि तुम्हारे इरादों की है। तुम्हें यह पहचानना होगा कि सत्य क्या है और छल क्या।"

आरव ने गहरी सांस ली। उसने अपने माता-पिता की ओर देखा। उनकी आँखों में दर्द था। पर तभी उसने कुछ अजीब देखा—उनकी परछाइयाँ नहीं थीं।

आरव का दिमाग तेजी से दौड़ा। असली इंसानों की परछाइयाँ होती हैं। तो फिर ये?

"तुम लोग… असली नहीं हो।"

"क्या?" माँ की आवाज़ काँप गई।

"तुम मेरे मन का भ्रम हो। अगर मैं तुम्हारी मदद करने के लिए यह परीक्षा छोड़ दूँ, तो मैं हार जाऊँगा। यह मेरी परीक्षा का हिस्सा है।"

जैसे ही आरव ने यह कहा, अचानक पूरा दृश्य चकनाचूर होने लगा। माता-पिता और वीर प्रताप की छवियाँ धुएँ में बदल गईं, और उनका दर्द भरा चेहरा एक भयानक हँसी में बदल गया।

"शाबाश, आरव… तुमने पहली परीक्षा पास कर ली। पर आगे देखो… असली युद्ध अभी बाकी है।"

मंदिर के अंदर, सुमित्रा और व्यास अभी भी वीर प्रताप की परछाई को देख रहे थे।

"अगर यह परछाई तुम्हारी नहीं है, तो यह यहाँ क्यों है?" सुमित्रा ने पूछा।

वीर प्रताप की आत्मा ने कहा, "क्योंकि जब मैंने रक्त श्राप को खत्म किया, तब मैंने सोचा था कि यह पूरी तरह मिट चुका है। लेकिन यह श्राप सिर्फ एक जंजीर था, जो किसी और के नियंत्रण में थी। असली शक्ति जिसने इसे नियंत्रित किया, वह अभी भी ज़िंदा है।"

"क्या वह शक्ति दंश है?" व्यास ने पूछा।

"नहीं," वीर प्रताप ने धीरे से कहा, "दंश सिर्फ एक मोहरा है। असली ताकत उससे कहीं ज्यादा खतरनाक है।"

"तो अब हमें क्या करना होगा?" सुमित्रा ने घबराकर पूछा।

"हमें आरव तक यह खबर पहुँचानी होगी," वीर प्रताप की आत्मा बोली। "उसे असली दुश्मन का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। लेकिन मुझे जल्दी करना होगा, वरना यह परछाई मेरी आत्मा को पूरी तरह निगल जाएगी।"

गहरे अंधकार में, दंश के चारों ओर काली लपटें उठ रही थीं। उसका शरीर अब पहले से अधिक ताकतवर लग रहा था, पर उसकी आँखों में एक अलग ही अजीब-सी चमक थी।

उसके सामने वही रहस्यमयी आकृति खड़ी थी, जिसने उसे शक्ति दी थी।

"अब तुम शक्तिशाली हो, दंश," आकृति बोली, "लेकिन शक्ति का असली उपयोग तब होता है जब इसे सही समय पर इस्तेमाल किया जाए।"

"मुझे आरव को खत्म करना है," दंश ने ठंडी आवाज़ में कहा।

"नहीं," आकृति ने कहा, "अभी नहीं। पहले तुम्हें उसे कमजोर करना होगा।"

"कैसे?"

आकृति हँसी। "हर योद्धा की एक कमजोरी होती है, और आरव की कमजोरी है—उसकी भावनाएँ। तुम्हें उसे ऐसे मोड़ पर ले जाना होगा जहाँ वह अपनी भावनाओं पर काबू न रख सके। जब वह गुस्से में आएगा, तब उसकी शक्ति खुद ही उसे कमजोर बना देगी।"

दंश मुस्कुराया। "तो अब मैं उसके सबसे करीब के लोगों पर वार करूँगा।"

आकृति ने सिर हिलाया, और अचानक अंधेरे से एक काली छाया निकली। यह छाया दंश के हाथ में समा गई, जिससे उसकी शक्ति और भी बढ़ गई। "अब जाओ, और इस खेल को खत्म करो।

आरव अब रेगिस्तान से बाहर आ चुका था। जैसे ही वह बाहर निकला, उसकी आँखों के सामने साधु खड़े थे। उनके चेहरे पर गंभीरता थी।

"तुमने पहली परीक्षा पास कर ली, आरव," साधु बोले।

आरव ने लंबी सांस ली। "क्या यह अंत था?"

साधु हल्के से मुस्कुराए। "नहीं, यह तो बस शुरुआत थी। असली परीक्षा अभी बाकी है।"

आरव ने भौंहें चढ़ाईं। "अब क्या करना होगा?"

साधु ने धीरे से कहा, "तुम्हें त्याग का सबक सीखना होगा। तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति को खोने का दर्द सहना होगा, जिसे तुम बहुत प्यार करते हो।"

आरव चौंक गया। "क्या?"

"हर महान योद्धा को इस परीक्षा से गुजरना पड़ता है," साधु ने आगे कहा। "जो सच में अजेय बनना चाहता है, उसे अपने सबसे बड़े डर का सामना करना पड़ता है—किसी प्रियजन को खोने का दर्द।"

आरव का दिल तेजी से धड़कने लगा। "नहीं… ऐसा मत कहिए।"

"यह तुम्हारी नियति है, आरव," साधु की आवाज़ गूँज उठी। "अब समय आ गया है।"

उधर, मंदिर में वीर प्रताप की आत्मा अब भी संघर्ष कर रही थी। परछाइयाँ उसे जकड़ रही थीं, और सुमित्रा तथा व्यास बेबस खड़े थे।

"हमें कुछ करना होगा!" सुमित्रा चिल्लाई।

अचानक, मंदिर के बाहर तेज़ हवा चलने लगी। आकाश में काले बादल घिर आए। और फिर... दंश आ गया।

उसकी आँखें अब पूरी तरह काली पड़ चुकी थीं। उसके चारों ओर एक अजीब ऊर्जा बह रही थी।

"क्या तुम लोग सोचते हो कि आरव मुझे हरा देगा?" दंश हँसा। "उसे कभी पता नहीं चलेगा कि मैंने क्या किया है।"

व्यास ने तलवार निकाल ली। "हम तुम्हें यहाँ से आगे नहीं जाने देंगे!"

दंश ने बस अपनी उँगली उठाई, और व्यास ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके शरीर से रक्त बहने लगा।

"व्यास!" सुमित्रा चिल्लाई और उसकी तरफ भागी।

दंश मुस्कुराया। "अब खेल शुरू होता है।"

आरव अब भी साधु के शब्दों को समझने की कोशिश कर रहा था कि अचानक उसकी आँखों के सामने एक भयानक दृश्य दिखाई दिया।

मंदिर। सुमित्रा। व्यास। खून।

आरव का सिर घूम गया। "यह… यह क्या है?"

साधु ने गंभीर स्वर में कहा, "यह सच है, आरव। तुम्हारे सबसे करीबी लोग अब खतरे में हैं। लेकिन अगर तुम वहाँ गए, तो तुम अपनी परीक्षा में हार जाओगे।"

आरव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। "नहीं… मैं उन्हें मरने नहीं दे सकता!"

"अगर तुम वहाँ जाओगे, तो यह परीक्षा अधूरी रह जाएगी," साधु ने कहा। "फिर तुम्हें इस युद्ध में कभी जीत नहीं मिलेगी।"

आरव के अंदर तूफान उठने लगा।

"क्या करूँ?"

उसके सामने दो रास्ते थे—

1️⃣ परीक्षा पूरी करके अपनी ताकत बढ़ाना।

2️⃣ मंदिर जाकर अपने अपनों को बचाना, भले ही इससे उसकी शक्ति अधूरी रह जाए।

उसकी साँसें तेज़ हो गईं।

और फिर उसने फैसला किया।

त्याग या प्यार?

आरव ने मुट्ठियाँ कस लीं। "अगर जीतने के लिए मुझे अपने अपनों को मरते देखना पड़े, तो ऐसी जीत मुझे नहीं चाहिए!"

साधु ने गहरी सांस ली। "तो तुम परीक्षा को बीच में छोड़ रहे हो?"

"अगर मेरा परिवार नहीं रहेगा, तो मैं यह लड़ाई किसके लिए लडूँगा?" आरव की आँखों में आँसू थे। "मुझे शक्ति चाहिए, लेकिन अपने लोगों की कीमत पर नहीं!"

साधु ने कुछ नहीं कहा। बस उन्होंने धीरे से सिर झुका लिया।

और उसी पल, आरव ने कदम आगे बढ़ाया मंदिर की ओर।

आरव के कदम तेज़ी से मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन दिल में आग जल रही थी।

"मैंने बहुत सह लिया, अब नहीं!"

अमावस की रात थी। आकाश में तारे तक नहीं दिख रहे थे, सिर्फ काले बादल और अंधेरा। यह वही रात थी, जब दंश का जन्म हुआ था।

"आज इस युद्ध का अंत होगा!" आरव ने मन में ठान लिया।

मंदिर के अंदर तबाही मच चुकी थी। ज़मीन पर खून बिखरा था। व्यास दर्द से कराह रहे थे। वीर प्रताप की आत्मा अब लगभग नष्ट होने को थी।

और सुमित्रा…

वह अब भी दंश के सामने खड़ी थी, पर उसकी आँखों में डर था।

दंश हँस रहा था, उसकी शक्ति पहले से कहीं ज्यादा बढ़ चुकी थी। उसके चारों ओर काले धुएँ की लहरें उठ रही थीं।

"कितना अच्छा लगता है, जब तुम्हारे सबसे प्यारे लोग तुम्हारी आँखों के सामने मर रहे हों, है ना?" दंश ने व्यंग्य किया।

सुमित्रा काँप उठी। "तू जो भी कर ले, मेरा बेटा, मेरे घर का चिराग आरव तुझे खत्म कर देगा!"

"तेरा बेटा, हा...हा...हा... तेरे घर का चिराग हा...हा...हा... आरव?" दंश हँसा। "वह अपनी परीक्षा में फँसा हुआ है। और जब तक वह यहाँ पहुँचेगा… सब खत्म हो चुका होगा!

तभी…

एक जबरदस्त बिजली कड़की। मंदिर का दरवाजा ज़ोर से खुला, और धूल का एक भयंकर तूफान अंदर घुसा।

धुएँ के बीच एक आकृति खड़ी थी।

आरव!

उसकी आँखों में गुस्से की लपटें थीं। उसके शरीर से ऊर्जा निकल रही थी, और हवा उसके चारों ओर चक्कर काट रही थी। आरव अभी सात साल का बच्चा था, लेकिन उसकी आँखें ये बता रही थी कि अब वो बच्चा नहीं रहा वो एक योद्धा है। जिसे समस्त संसार को बचाना है।

"दंश!" आरव की गरजती आवाज़ गूँजी।

दंश मुस्कुराया। "आ गए मेरे पुराने दोस्त?"

"ये खेल अब खत्म हो चुका है!" आरव ने अपनी मुट्ठी कस ली।

"असली खेल तो अब शुरू हुआ है," दंश की आँखें चमकीं। "आज अमावस की रात है, आरव। आज वही रात है, जब मैं जन्मा था। और आज मेरी शक्ति अपने चरम पर है!"

और तभी…

दंश का पूरा शरीर जलने लगा। नहीं, यह जलना नहीं था—यह उसकी काली शक्ति का असली रूप था।

अचानक, दंश के शरीर से कई काली परछाइयाँ निकलने लगीं। ये परछाइयाँ ज़मीन से उठकर हवा में तैरने लगीं।

और फिर…

एक काली परछाई ने आकार बदल लिया।

वह अब दंश जैसी दिख रही थी।

फिर दूसरी।

फिर तीसरी।

अब मंदिर के अंदर तीन दंश खड़े थे!

आरव की आँखें चौड़ी हो गईं। "यह क्या है?"

"अमावस की काली रात में, मैं अकेला नहीं होता," दंश ने कहा। "आज से, मैं सिर्फ दंश नहीं हूँ। मैं परछाइयों का राजा हूँ!"

तीनों दंश एक साथ हँसे, और मंदिर के अंदर घना अंधकार छा गया।

अगले एपिसोड में:

➡️ कौन असली दंश है, और कौन परछाई?

➡️ आरव इस नयी शक्ति से कैसे लड़ेगा?

➡️ क्या वीर प्रताप की आत्मा बच पाएगी?

जानने के लिए पढ़ते रहिए— "घर का चिराग – एपिसोड 13"