निशाचर वन में एक अजीब सन्नाटा पसरा था। हवा में कुछ था, जो अनहोनी का संकेत दे रहा था।
आरव व्यास को सहारा देकर उठाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन वे एकदम शांत पड़े थे। उनकी आँखें आधी खुली थीं, लेकिन शरीर में कोई हरकत नहीं थी।
"गुरुजी… उठिए! आपने कहा था कि हम अभी हार नहीं सकते!" आरव की आवाज़ में बेचैनी थी।
लेकिन कोई जवाब नहीं आया।
सुमित्रा की आँखों में आँसू थे।
"नहीं… ऐसा नहीं हो सकता।"
आरव के अंदर गुस्से का तूफान उठने लगा। उसने अपनी तलवार ज़मीन में घोंप दी और गरजते हुए कहा—
"दंश! मैं जानता हूँ कि तुम यही चाहते थे। लेकिन यह मत समझना कि मैंने हार मान ली!"
अचानक—
"हा… हा… हा… हा…"
चारों ओर दंश की भयावह हँसी गूँज उठी।
धुंआ उठने लगा। हवा में अजीब सी सरसराहट होने लगी। और फिर…
आरव को ऐसा लगा जैसे समय पीछे चला गया हो।
वह खुद को एक महल के अंदर देख रहा था। वहाँ सामने एक सिंहासन था, और उस पर बैठा था—
वीर प्रताप!
"क्या…? यह कैसे हो सकता है?" आरव फुसफुसाया।
वीर प्रताप मुस्कुरा रहे थे। "बेटा, तुमने बहुत संघर्ष किया है। लेकिन अब समय आ गया है कि तुम अपने अतीत को जानो।"
आरव के हाथ काँप गए। "क्या… आप सच में जीवित हैं?"
"सवाल यह नहीं है कि मैं जीवित हूँ या नहीं… सवाल यह है कि तुम क्या देख रहे हो!"
आरव के दिमाग में हलचल मच गई।
और तभी वीर प्रताप की आँखें लाल हो गईं। उनका चेहरा विकृत होने लगा। और फिर…
"हा… हा… हा…"
उनका रूप बदल गया… और वहाँ बैठा था दंश!
"तुम सच और भ्रम में फर्क करना भूल गए हो, आरव!"
आरव को लगा जैसे ज़मीन उसके पैरों के नीचे से खिसक गई हो।
आरव चीखा, "यह सब झूठ है!"
लेकिन जैसे ही उसने अपनी तलवार उठाई—
"तुम्हें अब यह मान लेना चाहिए कि इस खेल का असली खिलाड़ी मैं हूँ, आरव।"
और फिर…
"धड़ाम!!!"
एक जबरदस्त झटका लगा, और आरव एक अंधेरे गड्ढे में गिरने लगा।
"आआआह्ह्ह!!!"
सब कुछ धुंधला होने लगा। चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा था।
आरव को अचानक महसूस हुआ कि वह एक नए स्थान पर गिर चुका है। जब उसने आँखें खोलीं…
वह किसी जेल में कैद था!
और सामने…
दंश सिंहासन पर बैठा हँस रहा था।
"अब देखते हैं कि तुम इस जगह से कैसे बाहर निकलते हो, आरव!"
आरव की आँखें धीरे-धीरे खुलीं। उसके सिर में तेज़ दर्द हो रहा था। जैसे ही उसकी चेतना वापस आई, उसने देखा कि वह एक अंधेरी कोठरी में पड़ा था। चारों ओर मोटी जंजीरें लटकी हुई थीं, और एक हल्की नीली रोशनी कोठरी के कोने में टिमटिमा रही थी।
"यह... कहाँ हूँ मैं?"
उसने उठने की कोशिश की, लेकिन महसूस हुआ कि उसके हाथ और पैर जंजीरों से जकड़े हुए थे।
तभी सामने से कदमों की आवाज़ आई। वह सिर उठाकर देखने की कोशिश करने लगा।
"आखिरकार जाग ही गए तुम, आरव।"
सामने खड़ा था दंश। उसकी आँखों में वही पुरानी काली चमक थी, लेकिन इस बार उसके चेहरे पर एक अलग तरह की संतुष्टि झलक रही थी।
"तुमने क्या किया मेरे साथ?" आरव ने गुस्से से पूछा।
दंश मुस्कुराया, "मैंने कुछ नहीं किया, आरव। तुमने खुद ही यह रास्ता चुना था। तुम्हें अपने परिवार की इतनी चिंता थी कि तुम अपनी परीक्षा अधूरी छोड़कर भागे आए। और देखो, अब तुम कहाँ हो!"
आरव ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन जंजीरें बेहद मजबूत थीं।
"तुम मुझसे डरते हो, दंश। इसलिए तुमने मुझे जंजीरों में कैद किया है," आरव ने तंज कसा।
दंश हल्का सा हँसा। "डर? नहीं, आरव। मैं बस तुम्हारे लिए खेल को और दिलचस्प बना रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी हार को पूरी तरह महसूस करो।"
आरव ने अपनी साँसें गहरी कीं। उसे दंश की हर चाल समझ में आ रही थी। वह चाहता था कि आरव हताश हो जाए, हार मान ले। लेकिन आरव जानता था कि अभी सब खत्म नहीं हुआ था।
"तुम चाहो जितनी भी चालें चल लो, दंश, लेकिन मैं तुम्हें हराकर रहूँगा।"
दंश की आँखों में चमक आ गई। "देखते हैं, आरव। लेकिन उसके पहले तुम्हें किसी से मिलवाना चाहता हूँ।"
अचानक, एक परछाईं धीरे-धीरे कोठरी के अंधेरे में से उभरने लगी। आरव ने ध्यान से देखा।
उसका दिल तेजी से धड़कने लगा।
"यह... यह कैसे हो सकता है?"
उसके सामने वीर प्रताप खड़े थे!
उनका चेहरा गंभीर था, और उनकी आँखों में कुछ ऐसा था, जिसे देखकर आरव का दिमाग उलझने लगा।
वीर प्रताप की आवाज़ धीमी लेकिन सख्त थी। "आरव, तुमने हमें धोखा दिया। तुमने अपनी परीक्षा अधूरी छोड़ दी। और अब तुम इसी कैद के लायक हो।"
आरव को कुछ समझ नहीं आ रहा था। यह कैसे संभव था? वीर प्रताप तो…
"क्या हुआ, आरव?" दंश ने हँसते हुए कहा। "विश्वास नहीं हो रहा?"
आरव की साँसें तेज़ हो गईं। यह कोई भ्रम था… या फिर कुछ और?
"अगर तुम असली वीर प्रताप हो, तो मुझे बताओ कि मैंने पहली बार आपसे क्या सीखा था?"
वीर प्रताप की आँखें पलभर के लिए सिकुड़ीं, लेकिन फिर उन्होंने गहरी आवाज़ में कहा, "त्याग का महत्व।"
आरव की आँखों में संदेह बढ़ता जा रहा था।
"और आखिरी सबक?"
वीर प्रताप कुछ पल चुप रहे, फिर बोले, "शक्ति ही सब कुछ है।"
आरव का दिल जोर से धड़का। नहीं!
"तुम वीर प्रताप नहीं हो!"
दंश हँस पड़ा। "काफी तेज़ हो, आरव। लेकिन इससे तुम्हारी स्थिति नहीं बदलेगी।"
आरव ने अपनी पूरी ताकत लगाई और जंजीरों को तोड़ने की कोशिश की। उसके भीतर ऊर्जा उमड़ने लगी। लेकिन तभी—
"धड़ाम!"
पूरी कोठरी हिलने लगी। दीवारें कंपन करने लगीं।
और अचानक...
दरवाजा जोर से खुला, और एक छाया अंदर आई।
"आरव!!!"
यह आवाज़… सुमित्रा की थी!
"माँ?"
आरव की आँखों में नई उम्मीद जागी। लेकिन सुमित्रा अकेली नहीं थीं। उनके पीछे खड़ा था एक रहस्यमयी व्यक्ति।
"अब खेल पलटने वाला है, दंश!" उस व्यक्ति ने कहा।
अंधेरी कोठरी में सन्नाटा छा गया। आरव की साँसें तेज़ हो गईं।
सुमित्रा उसके सामने खड़ी थी, लेकिन उनकी आँखों में कुछ अजीब था—जैसे वो कुछ छुपा रही हों। उनके साथ खड़ा रहस्यमयी व्यक्ति धीरे-धीरे आगे बढ़ा।
"कौन हो तुम?" आरव ने गहरी आवाज़ में पूछा।
व्यक्ति ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "तुम्हारा रक्षक। लेकिन सवाल यह है, क्या तुम मुझ पर भरोसा कर सकते हो?"
आरव ने ध्यान से देखा। उस व्यक्ति का चेहरा आधा छायाओं में छुपा था, लेकिन उसकी आँखों में एक अलग तरह की ऊर्जा थी।
दंश ने हल्का सा सिर झुकाया और हँसा, "कितना दिलचस्प... एक नया खिलाड़ी इस खेल में आ चुका है। लेकिन क्या यह खेल तुम्हें बचा पाएगा, आरव?"
सुमित्रा ने गहरी साँस ली और कहा, "आरव, हमें यहाँ से निकलना होगा!"
आरव अब भी उलझा हुआ था। लेकिन उसे ज्यादा समय नहीं मिला। दंश ने अपनी उंगलियों से एक इशारा किया, और पूरी कोठरी काले धुएँ में घिरने लगी।
"अब फैसला करो, आरव!" दंश की आवाज़ गूंज उठी।
एक नई साजिश की शुरुआत
आरव ने अपनी पूरी ताकत लगाई और जंजीरों को तोड़ने की कोशिश की। रहस्यमयी व्यक्ति ने जेब से एक छोटी सी चमकती हुई चाकू निकाली और उसकी जंजीरों पर वार किया।
"ट्रिन-ट्रिन!"
जंजीरें टूट गईं।
आरव तुरंत खड़ा हुआ और अपनी ऊर्जा को केंद्रित किया। लेकिन तभी...
"धड़ाम!"
पीछे की दीवार टूट गई, और वहाँ से दंश के सैनिक अंदर आ गए। उनकी आँखों में वही काली चमक थी, जो दंश के पास थी।
"इन्हें जाने मत दो!" दंश गरजा।
सुमित्रा और रहस्यमयी व्यक्ति ने आरव को घसीटते हुए कोठरी से बाहर निकाला। गलियारे में दौड़ते हुए, आरव के मन में कई सवाल थे—यह रहस्यमयी व्यक्ति कौन था? और उसको कैसे पता चला कि वह यहाँ बंद था?
"रुको!" आरव ने आखिरकार कहा। "मुझे बताओ कि यह सब क्या हो रहा है!"
रहस्यमयी व्यक्ति रुका और पीछे मुड़कर देखा।
"आरव, अब तुम जिस सच का सामना करने जा रहे हो, वो तुम्हारी दुनिया बदल देगा।"
सुमित्रा ने घबराकर कहा, "नहीं! अभी नहीं!"
लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।
रहस्यमयी व्यक्ति ने धीरे से अपना नकाब हटाया—और जो चेहरा सामने आया, उसे देखकर आरव की आँखें फटी की फटी रह गईं।
"त... तुम?!"
सच क्या है?
कौन है ये रहस्यमयी व्यक्ति?
क्या दंश अब हार मान लेगा या यह किसी और खतरनाक खेल की शुरुआत है?
अगले एपिसोड में:
➡ आरव के अतीत से जुड़ा सबसे बड़ा खुलासा!
➡ दंश की अगली चाल!
➡ और एक ऐसा राज़, जिसे जानकर सब हिल जाएंगे!
जानने के लिए पढ़ते रहिए— "घर का चिराग – एपिसोड 17"!